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उन्तीसवां अध्याय
व्याकरण के दार्शनिक ग्रन्थकार यद्यपि व्याकरणशास्त्र का मूल प्रयोजन भाषा में प्रयुज्यमान शब्दों के साधुत्व असाधत्व की विवेचना करना, और भाषा को अपभ्रंश से बचानामात्र है, तथापि जब भाषा में प्रयुज्यमान पदों के प्रयोग-कारणों का चिन्तन, पदार्थ और तत्सामर्थ्य का चिन्तन किया जाता है, तब व्याकरणशास्त्र दर्शनशास्त्र का रूप ग्रहण कर लेता है। इस दृष्टि से व्याकरणशास्त्र के दो विभाग हो जाते हैं। एक
शब्दसाधुत्वविषयक, और दूसरा-पद-पदार्थ-तत्सामर्थ्य चिन्तन१० विषयक।
इस ग्रन्थ के पूर्व २८ अध्यायों में व्याकरणशास्त्र के प्रथम विभाग के ग्रन्थों वा ग्रन्थकारों का इतिहास लिखा है। अब इस अध्याय में हम व्याकरणशास्त्र के द्वितीय विभाग अर्थात दार्शनिक ग्रन्थों वा ग्रन्थकारों का वर्णन करते हैं।
व्याकरणशास्त्र के प्रथम विभाग का इतिहास अत्यन्त प्राचीन है। परन्तु द्वितीय विभाग के इतिहास का प्रारम्भ अर्थात् व्याकरणशास्त्रसंबद्ध-विषयों पर दार्शनिक ग्रन्थों का प्रवचन कब से प्रारम्भ हुअा, यह अज्ञात है । हां, पाणिनि के एक सूत्र अवङ स्फोटायनस्य
(६।१।१२३) से तथा यास्क के शब्दनित्यत्वानित्यत्व-विचार (निरुक्त २० १११) से यह अवश्य ध्वनित होता है कि व्याकरणशास्त्र का दार्श
निकरूप से चिन्तन भी पाणिनि और यास्क से वहत पूर्व प्रारम्भ हो गया था।
स्फोट का निर्देश भागवत पुराण १०।८५।६ में इस प्रकार मिलता है
'दिशां त्वमवकाशोऽपि दिशः खं स्फोट प्राश्रयः ।
नादो वर्णत्वमोङ्कार प्राकृतीयं पृथक् कृतिः॥' व्याकरणशास्त्र के उपलब्ध दार्शनिक ग्रन्थों में प्राय: निम्न विषयों पर विचार किया गया है