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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
का सन्निवेश नहीं है । इसलिए इस पाठ में चार ही प्रपाठक स्वीकार किये जाते हैं । कुछ हस्तलेखों में पञ्चम प्रपाठक के स्थान में चतुर्थः प्रपाठकः समाप्तः पाठ भी मिलता है। (द्र० -डा० सूर्यकान्त
संस्क०) । मुद्रित वृत्तिग्रन्थ में प्रथम प्रपाठक की व्याख्या उपलब्ध ५ नहीं होती। वृत्तिग्रन्थ की विवत्ति में स्पष्ट रूप से द्वितीय प्रपाठक के
स्थान में ऋक्तन्त्रविवृत्तौ प्रथमः प्रपाठकः पाठ मिलता है (द्र०-डा० सूर्यकान्त संस्करण, परिशिष्ट । इससे भी यही विदित होता हैं कि वृत्ति और विवृत्ति ग्रन्थ ऋक्तन्त्र के जिस पाठ पर लिखे गये, उसमें
शिक्षात्मक प्रपाठक सम्मिलित नहीं था,अर्थात् शेष चार ही प्रपाठक थे। १० प्रौदवजि का अन्य ग्रन्थ-सामगान से सम्बद्ध एक सामतन्त्र
नाम का प्राचीन ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ का प्रवक्ता भी प्रौदवजि माना जाता है। इस विषय में सामतन्त्र के प्रकरण में लिखेंगे।
व्याख्याता
(१) अज्ञातनामा भाष्यकार ऋक्तन्त्र की जो व्याख्या डा० सूर्यकान्त जी ने प्रकाशित को हैं, - उसमें तीन स्थानों पर किसी प्राचीन भाष्य का उल्लेख मिलता है। यथा
१-नृभिर्यतः इति भाष्यम् । पूर्ण सूत्र-संख्या १४३ । २-अयमुते (१११८३) भाष्यम् । पूर्ण सूत्र-संख्या २४५ । ३-जनयत (१७२) भाष्यम् । पूर्ण सूत्र-संख्या २४५ ।
इन उद्धरणों से विदित होता है कि ऋक्तन्त्र पर पुरा काल में कोई भाष्य ग्रन्थ लिखा गया था। उसके विषय में इससे अधिक हम कुछ नहीं जानते।
(२) अज्ञातनामा वृत्तिकार ___ऋक्तन्त्र की जो वृत्ति प्रकाशित हुई है,उसके कर्ता का नाम और देश काल आदि कुछ भी परिज्ञात नहीं हैं ।
यह वृत्ति ऋक्तन्त्र के शिक्षात्मक प्रथम प्रपाठक पर सहीं है, यह हम पूर्व लिख चुके हैं।
इस वृत्ति में भाष्य के अतिरिक्त निम्न प्राचार्यों के वचन उप३० लब्ध होते हैं