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________________ प्रातिशाख्य आदि के प्रवक्ता और व्याख्याता ४२३ प्राचीन विशेषण मिलता है। इस विशेषण से इतना स्पष्ट है कि औदवजि नाम के दो आचार्य हुए हैं। उनमें भेद-निर्देश के लिए नारद- . शिक्षा में 'प्राचीन' विशेषण दिया है।' सम्भवतः ऋक्तन्त्र २।६।१० में निर्दिष्ट औदवजि भी प्राचीन औदवजि ही है । ऋक्तन्त्र प्रवक्ता के सम्बन्ध में जो दो मत उद्धत किये हैं, उनसे यह सम्भावना प्रतीत ५ होती है कि ऋक्तन्त्र का प्रवक्ता द्वितीय औदवजि है, और वह शाकटायन गोत्रज है (ऋक्तन्त्र के प्रारम्भ में निर्दिष्ट शाकटायन प्राद्य शाकटायन है)। इसीलिए ऋवतन्त्र के विषय में नामद्वय का निर्देश प्राचीन ग्रन्थों में मिलता है। ऋक्तन्म का वर्तमान स्वरूप निश्चय ही पाणिनि से पूर्ववर्ती है। १० इस विषय में हम डा० सूर्यकान्त जी के विचारों से सहमत नहीं, जिन हेतानों से उन्होंने पाणिनि से उत्तरकालीन सिद्ध करने का प्रयत्न किया हैं । इस पर विस्तृत विचार लक्षण-ग्रन्थों के इतिहास में करेंगे। ___ोदवजि का देश-पाणिनि अष्टाध्यायी २।४।५६ के अनुसार प्रौदवजि अप्राग्देशीय है (सम्भवतः औदीच्य) । काशिकाकार १५ लिखता है अन्ये पैलादय इअन्तास्तेभ्य इनः प्राचाम् (२।४।६०) इति लुकि सिद्धेऽप्रागर्थः पाठः।' ऋक्तन्त्र का शाखाविशेष से सम्बन्ध-गोभिल गृह्यसूत्र का . व्याख्याता भट्ट नारायण लिखता है 'राणायनीयानामृक्तन्त्रप्रसिद्धा विसर्जनीयस्याभिनिष्टानाख्या।' (पृष्ठ ४२०) इस उद्धरण से विदित होता है कि ऋक्तन्त्र का सम्बन्ध सामवेद की राणायनीय संहिता के साथ है। ऋवतन्त्र का द्विविध पाठ-हरदत्त की ऋक्सर्वानुक्रमणी के पूर्व २५ उदधत पाठ के अनुसार ऋक्तन्त्र में ५ प्रपाठक हैं । मुद्रित ग्रन्थ में भी ५ प्रपाठक उपलब्ध होते हैं । इस पाठ में शिक्षारूप प्रथम प्रपाठक भी सम्मिलित हैं। ऋक्तन्त्र के दूसरे पाठ में शिक्षारूप प्रथम प्रपाठक १. अष्टाध्यायी २।४१५६ के अनुसार औदवजि के पुत्र (युवापत्य) के लिए भी 'औदवजि' का ही प्रयोग होता है। अर्थात् औदवजि से उत्पन्न युव ३० प्रत्यय का लोप हो जाता है। २०
SR No.002283
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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