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संस्कृत व्याकरण - शास्त्र का इतिहास
नीय शिक्षा के सम्पादक मनोमोहन घोष ने इस उद्धरण का पृष्ठ १ पर शुद्ध पाठ देकर भी पृष्ठ २६ पर पाठ का शोध नहीं किया, यह चिन्त्य है |
संख्या ३ का उद्धरण प्रपा० १ खण्ड ३ में स्वल्पपाठान्तर से मिलता है ।
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संख्या ४ के उद्धरण का पूर्व भाग, प्रपा ० १ खण्ड २ के अन्त में, और उत्तर भाग खण्ड ३ के आरम्भ में स्वल्पभेद से मिलता है। पाणिनीय शिक्षा के काशी संस्करण में उत्तर भाग का पाठ अत्यन्त भ्रष्ट है ।
प्रवक्तृत्व पर विचार - ऊपर प्राचीन ग्रन्थकारों के दो मत उद्धृत किए हैं। एक के अनुसार ऋक्तन्त्र का प्रवक्ता शाकटायन हैं, और १५ दूसरे के अनुसार प्रदवजि । ऋक्तन्त्र के प्रारम्भ में श्वासो नाद इति शाकटायनः सूत्र में शाकटायन का मत निर्दिष्ट है, और प्रपा० २ खण्ड ६ सूत्र १० न्यायेनौदवजि: में प्रौदवजि का नामतः उल्लेख है । नारदीय शिक्षा प्रपा० २ कण्डिका ८ श्लोक ५ ( पृष्ठ ४४३ काशी शिक्षासंग्रह) में किसी प्राचीन औदवजि का मत निर्दिष्ट है ।'
संख्या ८ का उद्धरण प्रपा ० १ खण्ड २ में मिलता है, परन्तु पञ्जिका का पाठ कुछ भ्रष्ट है ।
संख्या ५, ६ का पाठ मुद्रित ऋक्तन्त्र में नहीं मिलता ।
डा० सूर्यकान्त का विचार - डा० सूर्यकान्त का विचार है कि ऋक्तन्त्र का प्रथम प्रणयन प्रौदवजि ने किया था । उसका थोड़े से परिवर्तन और परिवर्धन के साथ द्वितीय संस्करण शाकटायन ने किया । ऋक्तन्त्र का जो संस्करण सम्प्रति मिलता है, वह उसका तृतीय संस्करण है । और यह निश्चित ही पाणिनि से उत्तरवर्ती है ।'
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डा० सूर्यकान्त जी के विचार का आधार ऋक्तन्त्र में प्रदि और शाकटायन दोनों नामों का कण्ठतः निर्देश प्रतीत होता है ।
हमारा विचार - नारदशिक्षा ( २२८/५ ) में प्रौदवजि के साथ १. तेनास्यकरणं सौक्ष्म्यं माधुर्यं चोपजायते । वर्णांश्च कुरुते सम्यक् प्राचीनवजिर्यथा ॥
२. डा० सूर्यकान्त सम्पादित ऋक्तन्त्र भूमिका, पृष्ठ ३६-४३ ।