________________
- प्रातिशास्य आदि के प्रवक्ता और व्याख्याता ४१६
प्राचीन संस्कृत-भाषा में प्रयुक्त वर्गों के विभागों तथा उच्चारण के विषय में अनुसंधान करने की महती आवश्यकता है। प्राचीन वर्णों के यथार्थ स्वरूप का परिज्ञान होने पर भाषा-विज्ञान के क्षेत्र में एक नई क्रान्ति हो सकती है । भाषा-विज्ञान के अनेक नियमों पर नए रूप से विचार करना पड़ेगा।
१३-भाषिक-सूत्रकार कात्यायन प्रातिशाख्य के परिशिष्टों में एक भाषिक-सूत्र भी है। इस में शतपथ ब्राह्मण के स्वरसंचार पर प्राधान्येन विचार किया गया है। इसमें तीन कण्डिकाए हैं।
शतपथ ब्राह्मण के स्वरों का विधान करते हुए इस परिशिष्ट से १० उन ब्राह्मणों के विषय में भी प्रकाश पड़ता है, जो सम्प्रति लुप्त हो । गये हैं । अथवा जिन में स्वर सम्प्रदाय नष्ट हो गया है । यथा
१-शतपथवत् ताण्डिभाल्लविनां ब्राह्मणस्वरः ॥३॥१५॥ २-मन्त्रस्वरवद् ब्राह्मणस्वरश्चरकाणाम् ॥३॥२५॥ ३-तेषां खाण्डिकेयौखेयानां चातुःस्वर्यमपि क्वचित् ॥३॥२६॥ १५ ४- ततोऽन्येषां ब्राह्मणस्वरः ॥३॥२७॥ इस परिशिष्ट से स्वर विषय पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। यत् आदि के योग में कितने वर्गों के व्यवधान में तिङ् स्वर होता है, अर्थात् निघात स्वर का प्रतिषेध होता है, इस पर अच्छा विचार उपलब्ध होता है।
व्याख्याकार
(१) महास्वामी महास्वामी नामक एक विद्वान् ने भाषिकसूत्र पर एक भाष्य लिखा था। इस भाष्य का सम्पादन वैबर ने (इण्डीश स्टडीन) किया है। आगे निर्दिश्यमान अनन्तभाष्य इस महास्वामी के भाष्य की छाया २५ मात्र है । इसलिये महास्वामी का काल वि०सं० १६५० से पूर्व होगा।
(२) अनन्तदेव इस परिशिष्ट पर नागदेव सुत अनन्तदेव की व्याख्या वाजसनेय प्रातिशाख्य के काशी संस्करण में पृष्ठ ४३२-४७१ तक छपी है।