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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास इन उद्धरणों में क्रमशः
प्रथम में-माध्यन्दिन प्रातिशाख्याध्येताओं के द्वारा य के स्थान में न उच्चारण पर प्रकाश पड़ता है। इस उद्धरण से विदित होता है
कि शुद्ध ज उच्चारण अशुद्ध है, जसदृश उच्चारण होना चाहिये। ५ अर्थात् यह स्वतन्त्र वर्ण है, न य है और न ज । दोनों के मध्यवर्ती
उच्चारण वाला है। इसी बात को व्यक्त करने के लिये चवर्गतृतीयसदृशं में सदृश शब्द का उपादान किया है।
द्वितीय में-माध्यन्दिन शाखाध्यायियों के द्वारा ष के स्थान में उच्चार्यमाण ख उच्चारण पर प्रकाश पड़ता है। यह भी न ष है और १० न ख, अपितु ष--ख मध्यवर्ती स्वतन्त्र वर्ण है। इसी बात को व्यक्त
करने के लिये कवर्गीयप्रतिरूपकं खकारोच्चारणं में प्रतिरूपक शब्द का प्रयोग किया है। अन्यथा प्रतिरूप शब्द व्यर्थ है, खकारोच्चारणं कर्तव्यम् इतना ही कहना पर्याप्त है।
तृतीय में- ह्रस्व दीर्घ और गुरुसंज्ञक त्रिविध का उल्लेख है। . १५ और तृतीय प्रकार के वर्ण के उच्चारण के 'परिभ्रंश अर्थात् नाश का उल्लेख है।
हमारा विचार है कि प्राचीन काल में संस्कृत भाषा में ऐसे कई स्वतन्त्र वर्ण थे, जो उत्तरकाल में उच्चारण-दोष से नष्ट हो गये। इसी प्रकार के वर्गों के नाश के कारण सम्प्रति वर्गों की ६३ संख्था उपपन्न नहीं होती। साम्प्रतिक विद्वान् इस संख्या की पूर्ति एक-एक स्वर को ह्रस्व दीर्घ प्लुत भेद से तीन प्रकार का (संध्यक्षरों को दो प्रकार का) गिनकर करते हैं । यह चिन्त्य है। यदि एक ही प्रकार को कालभेद के कारण ह्रस्व-दीर्घ-प्लुत भेद से तीन प्रकार का गिना जाए,
तो उदात्त अनुदात्त स्वरित और सानुनासिक भेदों की गिनती क्यों २५ नहीं की जाती ? उन्हें स्वरभेद से पृथक् क्यों नहीं माना जाता ?
प्रतिज्ञा-परिशिष्ट २।६ में वकार के भी गुरु-मध्य-लघु तीन भेद कहे हैं। याज्ञवल्क्य शिक्षा श्लोक १५५, १५६ में व--य दोनों के गुरु, लघ और लघतर भेद कहे हैं। पाणिनि ने भी व्योर्लघप्रयत्नतरः शाक
टायनस्य (८।३।१८) सूत्र में य, व के लघुतर रूप का निर्देश ३० किया है।