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________________ २/५३ प्रातिशाख्य आदि के प्रवक्ता और व्याख्याता ४१७ क्योंकि यह अनन्तभट्ट अपने प्रत्येक ग्रन्थ के अादि अथवा अन्त में अपने माता-पिता और शाखा के नामों का उल्लेख करता है। प्रतिज्ञासूत्र-व्याख्या के आद्यन्त में ऐसा निर्देश उपलब्ध नहीं होता। इतना ही नहीं, नागदेव सुत अनन्तदेव अपने अन्य ग्रन्थों में याज्ञिक विशेषण नहीं देता। प्रतिज्ञासूत्र व्याख्या के अन्त में 'याज्ञिक' विशेषण ५ मिलता है। वि० सं० १८०२ में लिखी गई बालकृष्ण शर्मा की प्रातिशाख्यदीपिका (पृष्ठ २६३ शिक्षा-संग्रह) में भी प्रतिज्ञासूत्र भाष्यकार का 'अनन्त याजिक' नाम से निर्देश मिलता है। .... .... वैदिक ग्रन्थ व्याख्याताओं में एक देव याज्ञिक प्रसिद्ध है, क्या १० उसका मूल नाम अनन्तदेव तो नहीं ? सम्भव है दो अनन्तदेवों के भेद-परिज्ञान के लिए एक को अनन्तदेव तथा दूसरे को देव याज्ञिक नाम से व्यवहार करने की परिपाठी रही हो। इसकी सम्भावना देवयाज्ञिकविरचित कात्यायन सर्वानुक्रमणीभाष्य के काशी संस्करण के मुख पृष्ठ से होती है । उस पर याज्ञिकानन्तदेवविरचितभाष्यसहितम् १५ निर्देश छपा है। वस्तुतः जब तक उक्त समस्या का समाधान नहीं हो जाता, तब तक इस व्याख्या का कालनिर्णय करना अशक्य है। ___व्याख्या में प्रत्युपयोगी निर्देश-प्रतिज्ञासूत्र की व्याख्या में कुछ अत्युपयोगी निर्देश मिलते हैं, जिनसे प्राचीन वर्णराशि तथा उच्चारण २० विषय पर नया प्रकाश पड़ता है । यथा- . ... १-प्रतः सम्प्रदायविद एवं विधे यकारे स्पृष्टप्रयत्नज्ञापनाय मध्ये विन्दु प्रक्षिपन्ति । स्पृष्टप्रयत्न स्थानक्याच्च वर्गतृतीयसदृशं यकारं पठन्ति च । २।२ । पृष्ठ ४१६ । २-षटौ मूर्धनीति (प्राति० १।६७) सूत्रात् षकारो मूर्धन्यः स्थान- २५ करणपरित्यागेनार्धस्पृष्टषकारस्थाने कवर्गीय प्रतिरूपकं खकारोच्चारणं कर्तव्यम् २॥११॥ पृष्ठ ४२४। ।.. . ... ३-संज्ञाभेदो निमित्तभेदो लिपिभेदश्च । तृतीयस्तु इदानी प्रायशः परिभ्रष्टस्तथापि प्राचीनसम्प्रदायानुरोधाद् विज्ञायते । ३।२७। पृष्ठ ४२४।
SR No.002283
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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