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४१६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
कात्यायन प्रातिशाख्य से सम्बद्ध प्रतिज्ञासूत्र के विषय में व्याख्याकार अनन्त देव लिखता है
'प्रातिशाख्यकयनानन्तरं चैतस्यावसरो यतस्तन्निरूपितकर्म नियुक्तमन्त्रेषु स्वरसंस्कारनियमावश्यंभावतयाऽनपदिष्टस्वरसंस्थानसंस्कारा५ कांतदर्थमयमारम्भः।' ___ अर्थात् प्रातिशाख्य में अनुपदिष्ट स्वरसंस्कार आदि का वर्णन करने के लिए इसका प्रारम्भ है। ____ इस प्रतिज्ञासूत्र में तीन कण्डिकाए हैं। प्रथम में स्वर विशेष के
नियमों का वर्णन है । द्वितीय में य-ज, ष-ख और स्वरभक्ति आदि के १० उच्चारण का विधान है। तृतीय में प्रयोगवाहों के विशिष्ट उच्चारण की विधि कही है।
व्याख्याकार अनन्तदेव याज्ञिक की व्याख्या में अनेक स्थानों पर प्राचीन व्याख्याकारों के मत उद्धृत हैं । उनसे विदित होता है कि इस ग्रन्थ १५ पर कई व्याख्यान-ग्रन्थ लिखे जा चुके थे। यथा
१-प्रतिज्ञानं प्रतिज्ञा । समधिगम्येऽर्थे प्रतिज्ञा शब्दो भाक्त इत्याहुः । १११॥ पृष्ठ ४०२।
२-केचित्तु पाठादेवानन्तर्यसिद्धौ मङ्गलार्थ एवाथ शब्द इत्याहुः । १११ पृष्ठ ४०२। इन प्राचीन व्याख्यानों में से एक भी सम्प्रति प्राप्त नहीं है।
अनन्तदेव याज्ञिक काशी से प्रकाशित वाजसनेय प्रातिशाख्य के अन्त में पृष्ठ ४०१ से ४३१ तक प्रतिज्ञासूत्र व्याख्या-सहित छपा है।
व्याख्याता का नाम-इस सूत्र की प्रत्येक कण्डिका के अन्त में
'इत्यनन्तदेवयाज्ञिकविरचिते प्रतिज्ञापरिशिष्टे सूत्रभाष्ये ।' ऐसा पाठ प्रायः उपलब्ध होता है।
प्रतिज्ञासूत्र भाष्य के आद्यन्त पाठ से यह प्रतीत नहीं होता है कि यह अनन्त कौनसा है, याजुष प्रातिशाख्य तथा काण्व संहिता का व्याख्याकार नागदेव भट्ट का पुत्र अनन्तभट्ट अथवा अनन्तदेव यह नहीं है।