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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
श्री पण्डित जी के इस लेख से प्रतीत होता है कि आप अथर्व प्रातिशाख्य को पाणिनि से उत्तरकालीन मानते हुए, उस पर पाणिनि की छाप का प्रतिषेध कर रहे हैं । वस्तुतः यह ठीक नहीं है । अथर्व प्रातिशाख्य पाणिनि से पूर्ववर्ती है । इसलिए उस पर पाणिनि की ५ छाप का तो कोई प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता । अथर्व प्रातिशाख्यभाष्य
अलवर के राजकीय हस्तलेख संग्रह के सूचीपत्र में संख्या ३२८ पर प्रातिशाख्यभाष्य का एक हस्तलेख निर्दिष्ट है । इस हस्तलेख के प्रान्त का जो पाठ सूचीपत्र के अन्त में पृष्ठ २६ पर छपा है, उसके १० अवलोकन से तो यही प्रतीत होता है कि यह हस्तलेख बृहत्पाठ का
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है । इसके अन्त्य पाठ में प्रथर्ववेदे प्रातिशाख्ये तृतीयः प्रपाठकः समाप्तः ही पाठ निर्दिष्ट है । इससे सन्देह होता है कि सूचीपत्र निर्माता ने इस पाठ में उदाहरणों का सन्निवेश देखकर इसके नाम के साथ भाष्य शब्द का प्रयोग कर दिया है ।
११ - अथर्व चतुरध्यायी - प्रवक्ता
अथर्व-सम्बन्धी पार्षद सदृश एक ग्रन्थ औौर है, जो प्रायः शौनकोय चतुरध्यायी के नाम से सम्प्रति व्यवहृत हो रहा है । यह ग्रन्थ चार अध्यायों में विभक्त है ।
प्रवक्ता - इस ग्रन्थ के प्रवक्ता का नाम संदिग्ध है। टिनी के २० हस्तलेख के अन्त में शौनक का नाम निर्दिष्ट होने से उसने इसे शौनकीय कहा है । बालशास्त्री गदरे ग्वालियर के संग्रह से प्राप्त चतुरध्यायी के हस्तलेख के प्रत्येक अध्याय के अन्त में -
'इत्यथर्ववेदे कौत्सव्याकरणे चतुरध्यायिकायां
पाठ उपलब्ध होता है । यह हस्तलेख प्राचीन हस्तलेख पुस्तकालय
२५ उज्जैन में सुरक्षित है । इस हस्तलेख के विषय में पं० सदाशिव एल० कात्रे का न्यू इण्डियन एण्टीक्वेरी सितम्बर १९३८ में एक लेख छपा है, वह द्रष्टव्य है ।
कौत्स व्याकरण के नाम से निर्दिष्ट एक हस्तलेख काशी के
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