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प्रातिशाख्य आदि के प्रवक्ता और व्याख्याता .४१३ अर्थात्-यह विधान पाणिनि की न्यूनता की पूर्ति कर देता है।
यहां श्री पं० विश्वबन्धु जी का अभिप्राय है कि पाणिनि ने देवताद्वन्द्वे च (६।२।१४१) सूत्र में उभयपद प्रकृतिस्वर का विधान करते हुये आमन्त्रित देवताद्वन्द्व का निषेध नहीं किया, इसलिए आमत्रित देवताद्वन्द्व में भी उभयपद प्रकृतिस्वर की प्राप्ति होगी। प्राति- ५ शाख्यकार ने अनामन्त्रितानि पद द्वारा उसका निषेध करके पाणिनि की त्रुटि की पूर्ति की है।
वस्तुतः अथर्व प्रातिशाख्य का उक्त नियम पाणिनीय विधान की पूर्ति नहीं करता । श्री पं० विश्वबन्ध जी ने पाणिनीय तन्त्र के एतद्विषयक पौर्वापर्यक्रम को भली प्रकार हृदयंगम नहीं किया। अतः १०
आपको पाणिनीय शास्त्र में यह न्यूनता प्रतीत हुई । वस्तुतः पाणिनीय तन्त्र की व्यवस्था के अनुसार देवताद्वन्द्व के भी आमन्त्रित होने पर दो स्थानों में पढ़ आमन्त्रितस्य च (६११९६; ८१११९) सूत्रों द्वारा उभयपद प्रकृतस्वर को बाधकर यथायोग्य आमन्त्रित स्वर की प्राप्ति हो जाती है।
पुनः पं० विश्वबन्धु जी लिखते हैं
Reserving further elaboration of this interesting, though thorny, of comparative study of this literature for the subsequent instalment of this work, this mech.may be safely stated that our Pratisha- २० khya depends to a considerable extent for its material on other kindred works and that, though indebted to old grammarians, does not bear the stamp of Panini. पृष्ठ ३४ ।
अर्थ-इस साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन के इस रोचक, किन्तु २५ तीखे विषय के और अधिक विस्तार को इस ग्रन्थ की आगामी किस्त के लिए सुरक्षित रखते हुए, इतना तो कहा ही जा सकता है कि हमारा प्रातिशाख्य अपनी सामग्री के लिए विचारणीय सीमा तक अन्य सजातीय ग्रन्थों पर आधृत है । और यद्यपि प्राचीन वैयाकरणों का ऋणी है, किन्तु इसके ऊपर पाणिनि की छाप नहीं।