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४१२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास यहां सूत्र पाठ में दोनों स्थानों पर पश्चात् पाठ है। परन्तु इनके जो उदाहरण छपे हैं, उनमें
इमे पश्चा पृदाकवः-पश्चा ।१०।४।११॥ सहस्राक्षरं प्र पुरो नि पश्चा-पश्चा। १०। ८।७; ११॥४॥२२॥
पश्चा पाठ है। परन्तु डाक्टर जी के हस्तलेख में दोनों स्थानों में पश्चात् पाठ ही है, इसका निर्देश उन्होंने स्वयं किया है। समझ में नहीं आता कि हस्तलेख में सूत्र और उदाहरण दोनों में पश्चात् एक जैसा ही होने पर भी सूत्र में पश्चात् और उदाहरणों में पश्चा पाठ देकर वैषम्य क्यों उत्पन्न कर दिया ?
२-इसी प्रकार सूत्र संख्या ११४ का पाठ है'विश्वमन्यामभीवार जागरत् प्रविशिवसमित्यभ्यासस्यापवादः ।' इस पाठ में जागरत् पाठ माना है । परन्तु उदाहरण'न ब्राह्मणस्य गां जग्ध्वा राष्ट्र जागार कश्चन। ॥१९॥१०॥
में जागार पाठ बना दिया, जबकि उनके हस्तलेख में जागरत् १५ पाठ उदाहरण में भी विद्यमान है। . इसी प्रकार अन्यत्र भी बहुत्र डाक्टर जी ने मूल कोष के पाठों
को बदल कर मुद्रित संहितानुसारी बनाया है। यह कार्य अशास्त्रीय है। आश्चर्य तो इस बात का है कि डाक्टर जी ने सूत्रपाठ को तो
हस्तलेखानुसार रहने दिया, किन्तु उदाहरण पाठ में परिवर्तन कर २० दिया। इससे दोनों में जो वैषम्य उनके द्वारा उत्पन्न हो गया, उस पर ध्यान नहीं दिया।
हमारा विचार है कि अथर्व प्रातिशाख्य की मूल संहिता न शंकर पाण्डुरङ्गवाली है, और ना ही राथ-ह्विटनीवाली। यह किसी अन्य संहिता का ही प्रतिनिधित्व करती है ।
पं० विश्वबन्धु जी की भल-पं० विश्वबन्धु जी ने अपने लघुपाठ के संस्करण की भूमिका में देवताद्वन्द्वान चानामन्त्रितानि ११२।४८ सूत्र को उद्धृत करके लिखा है
The Provision makes for a deficiency even in Panini. पृष्ठ ३४।