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प्रातिशाख्य आदि के प्रवक्ता और व्याख्याता ४११
सूर्यकान्त जी ने प्रकाशित किया है, वह उनके अत्यधिक प्रयत्न का फल है, इसमें किसी की विमति नहीं हो सकती तथापि उसके पाठों में संशोधन की पर्याप्त आवश्यकता है । उदाहरणार्थ हम दो स्थल उपस्थित करते हैं—
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( १ ) - सूत्र संख्या १७३ का डा० सूर्यकान्त सम्पादित पाठ इस प्रकार है
'ख्यातौ श्वयौ शुशुखीति बो धौ शुचेः ।' इसका शुद्ध पाठ होना चाहिए
'ख्यातौ खयौ शुशुग्धीति गधौ शुचेः ।'
सूत्र का अर्थ है -ख्या धातु के प्रयोगों में ख-य का संयोग होता १० है, और शुच के शुशुग्धि में गन्ध का संयोग ।
इस अर्थ की पुष्टि पार्षद के अगले पाठ में निर्दिष्ट उदाहरणों से होती है । डा० सूर्यकान्त के पाठ का कोई अर्थ नहीं बनता । पं० विश्वबन्धु जी सम्पादित लघुपाठ में इस सूत्र का पाठ - ख्यातौ खयौ शुशुषीति बाधौ शुचेः कुछ अंश में ( श्वयौ = खयौ ) शुद्ध है ।
२– पृष्ठ ४ पर 'आबाध' के उदाहरणों में
'शाखान्तरेऽपि तन्नस्तप उत सत्य च वेत्तु-तम् । नः । अकारान्तं पुंसि वचनम् । नपुंसकं तकारान्तं शौनके ।'
यहां अकारान्त के स्थान पर मकारान्त पाठ होना शाहिये ।
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हमारे द्वारा सुझाए संशोधन की पुष्टि सूत्र संख्या १४०८ के तन्नस्तप ........ षण् मकारान्तानि नकाराबाधे पाठ से होती है । इस पाठ में तन्नस्तप में तम् मकारान्त पाठ दर्शाया है ।
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श्रन्यथा संशोधन - डा० सूर्यकान्त जी के संस्करण में कतिपय स्थल ऐसे भी हैं, जिनमें हस्तलेखों का पाठ अन्यथा होते हुए भी डाक्टर जी ने मुद्रित अथर्वसंहिताओं के पाठों के आधार पर हस्तलेखों २५ के पाठ परिवर्तित कर दिए। यथा
१ - - सूत्र संख्या ५८ का पाठ है
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" पश्चात् पृदाकवः सहस्राक्षरं प्र पुरो नि पश्चाच्चि
तिरा......| '