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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
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परम्पराप्राप्त सत्य इतिहास का गला घोंट कर अज्ञान का प्रसार करते हैं।
पाणिनीय तन्त्र में पाणिनि द्वारा अनिर्दिष्ट तथा कात्यायन और पतञ्जलि द्वारा निर्दिष्ट शतशः ऐसे प्रयोग हैं, जिनका साधुत्व प्राचीन ५ व्याकरणों में उपलब्ध है, अथवा प्राचीन वाङ्मय में वे उसी रूप में
व्यवहृत हैं । इसकी विशेष मीमांसा हमने अपने अपाणनीयपदसाधुत्वमीमांसा' ग्रन्थ में की है (यह अभी अप्रकाशित है)।
दो पाठ-अथर्वपार्षद के लघु और बृहद् दो प्रकार के पाठ उपलब्ध होते हैं । इन दोनों पाठों की विस्तृत तुलना करके डा० सूर्यकान्त जी ने लिखा है कि लघु पाठ बृहत् पाठ से उत्तरकालीन है। उनका यह मत सम्भवतः ठीक ही है। उनकी एतद्विषयक युक्तियां पर्याप्त बलवती हैं । इस विषय पर अधिक उनकी भूमिका में ही देखें।
शाखा-सम्बन्ध-डा० सूर्यकान्त जी ने अथर्व प्रातिशाख्य तथा शौनकीय चतुरध्यायी के नियमों की राथ विटनी तथा शंकर पाण्डु१५ रङ्ग द्वारा सम्पादित अथर्व संहिताओं के साथ तुलना करके यह परि
णाम निकाला है कि शङ्कर पाण्डुरङ्ग द्वारा संगृहीत हस्तलेख अथर्व प्रातिशाख्य के नियमों का अनुसरण करते हैं, शौनकीय चतुरध्यायी के नियमों का अनुसरण नहीं करते। इसलिए शङ्कर पाण्डुरङ्ग के हस्तलेख शौनक शाखा के नहीं थे। राथ-ह्विटनी का पाठ शौनकीय चतुरध्यायी के अनुसार है। दोनों प्रकार की संहिताओं में अतिस्वल्पभेद होने के कारण दोनों के हस्तलेखों का मिश्रण हो गया है।
शौकनीय अथर्व संहिता पर भावी कार्य करनेवालों को इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए।
पार्षद चतुरध्यायी से उत्तरवर्ती-डा० सूर्यकान्त जी का यह भी २५ मत है कि अथर्व प्रातिशाख्य शौकनीय चतुरध्यायी से उत्तरवर्ती है। हम अभी निश्चित रूप से इस विषय में कुछ नहीं कह सकते।
बृहत्पाठ का संस्करण-पार्षद के बृहत्पाठ का जो संस्करण डा०
१. इसका संक्षिप्त रूप 'प्रादिभाषायां प्रयुज्यमानानामपाणिनीयप्रयोगाणां साधुत्वविवेचनम' नाम से 'वेदवाणी' (मासिक पत्रिका, रामलाल कपूर ट्रस्ट ३० बहालगढ़) के वर्ष १४ अंक १, २, ४, ५ में छप चुका है।