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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का शेतहास
इससे विदित होता है कि रामकृष्णदीक्षित सूरि ने फुल्लसूत्र पर नानाभाष्य नामक बृहद्भाष्य लिखा था।
इससे अधिक इसके विषय में हमें कुछ ज्ञात नहीं। सम्प्रति पुष्पसूत्र पर अजातशत्रु का भाष्य ही उपलब्ध है।
१०-अथर्वपार्षद-प्रवक्ता अथर्ववेद से सम्बन्ध रखनेवाले दो ग्रन्थ हैं-एक प्रातिशाख्य, और दूसरा शौनकीय चतुरध्यायी अथवा कौत्स व्याकरण । अथर्व प्रातिशाख्य के भी दो पाठ हैं। एक-पं० विश्वबन्धु शास्त्री सम्पादित,
दूसरा-डा० सूर्यकान्त सम्पादित । दोनों पाठों के प्रकाश में आ जाने १० पर प्रथम पाठ का व्यवहार लघुपाठ के नाम से, और द्वितीय का
बृहत्पाठ के नाम से किया जाता है। शौकनीय चतुरध्यायी के सम्बन्य में हम आगे लिखेंगे।
प्रवक्ता-अथर्व प्रातिशाख्य का प्रवक्ता कौन आचार्य है, यह कहना कठिन है। क्योंकि दोनों पाठों के अन्त में प्रवक्ता के नाम का १५ उल्लेख नहीं मिलता।
काल-डा० सूर्यकान्त जी ने स्वसम्पादित प्रातिशाख्य की भूमिका में इसके काल-निर्धारण के विषय में विस्तार से लिखा है। उसका आशय संक्षेप से इस प्रकार है
'कात्यायन ने पाणिनि के ६।३।८ पर प्रात्मनेभाषा और परस्मै२० भाषा रूप बनाए हैं । अथर्व प्रातिशाख्य सूत्र २२३ में प्रात्मनेभाषा
और परस्मैभाषा शब्द प्रयुक्त हैं। कातन्त्र में परस्मै और आत्मने का प्रयोग भी मिलता है । कात्यायन ने अद्यतनी और श्वस्तनी का प्रयोग किया है। कातन्त्र में इनके अतिरिक्त लङ के लिए शस्तनी का प्रयोग भी होता है। अथर्व प्रातिशाख्य में अद्यतनी ( सूत्र ७८) ह्यस्तनी (सूत्र १६७) शब्दों का प्रयोग मिलता है। कातन्त्र ३।१।१४ भूतकरणवत्पश्च में भूतकरण का प्रयोग उपलब्ध होता है। उसी अर्थ में अथर्वप्रातिशाख्य (सूत्र ४६७) में भूतकर का निर्देश मिलता है। अतः अथर्व प्रातिशाख्य का समय पाणिनि के पश्चात् और पतञ्जलि से पहले है ।' द्र०-भूमिका पृष्ठ ६३-६४ ।