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४०६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास षष्ठ सप्तम प्रपाठकों की प्रत्येक कण्डिका के अन्त के पाठ से होती है ।
यथा
पञ्चम प्रपाठक की प्रत्येक कण्डिका के अन्त में पाठ है
'इति उपाध्यायाजातशत्रकृते पुष्पसूत्रभाष्ये प्रथमस्य प्रथमो ५ (द्वितीया-तृतीया-चतुर्थी-द्वादशी) कण्डिका समाप्ता।'
षष्ठ प्रपाठक की प्रत्येक कण्डिका के अन्त में -
'इति उपाध्याजातशत्रुकृते पुष्पसूत्रभाध्ये द्वितीयस्य प्रथमो (-द्वादशी) कण्डिका समाप्ता।'
सप्तम प्रपाठक की प्रत्येक कण्डिका के अन्त में'इति"भाष्ये तृतीयस्य प्रथमो (-द्वादशी) कण्डिका समाप्ता।' इसी प्रकार अष्टम प्रपाठक की प्रथम कण्डिका के अन्त में
'इति "पुष्पसूत्रभाष्ये चतुर्थस्य प्रथमकण्डिका समाप्ता।' पाठ मिलता है परन्तु अगली कण्डिका के अन्त से चतुर्थस्य के स्थान में अष्टमस्य पाठ प्रारम्भ में हो जाता है। प्रतीत होता है कि इतना भाग मुद्रित हो जाने पर सम्पादक को ध्यान आया होगा कि प्रतिपृष्ठ ऊपर तो पंचमः षष्ठः सप्तमः अष्टमः छप रहा है, और भाष्य में प्रथम द्वितीयस्य तृतीयस्य चतुर्थस्य छप रहा है। इस विरोध का परिहार करने के लिए सम्पादक ने आगे सर्वत्र भाज्यपाठ में मूलपाठवत् प्रपाठक का निर्देश कर दिया है।
इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि अजातशत्रु के अाधारभूत ग्रन्थ का पाठ मुद्रित पुष्पसूत्र के पञ्चम प्रपाठक से प्रारम्भ होता है।
व्याख्याकार उपाध्याय अजातशत्रु की व्याख्या के अवलोकन से विदित होता है कि उससे पूर्व पुष्पसूत्र पर कई व्याख्याए लिखी जा चुकी थीं ।
१५
मा
२५ यथा
(१) भाष्यकार अजातशत्रु दशम प्रपाठक की सप्तमी कण्डिका की व्याख्या में लिखता है-'उच्यते । सत्यं न प्राप्नोति । किं तहि ? भाष्यकारेण अकारचोद्यन प्रापितम् ।' पृष्ठ २३९ ।