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प्रातिशाख्य आदि के प्रवक्ता और व्याख्याता
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महादेव शास्त्री ने भूमिका में सामप्रातिशाख्य को प्रापिशलि विरचित माना है। यह प्रमाणाभाव से चिन्त्य है। ___पं० सत्यव्रत सामश्रमी ने स्वसंपादित पुष्पसूत्र की भूमिका में लिखा है_ 'एतस्यैव तार्तीयकं सूत्रमेकमवलम्ब्यारचितं मीमांसादर्शननवमा- ५ ध्यायनवमाधिकरणम् । तथा चोक्तम् अधिकरणमालायामपि-तथा च सामगा पाहुः-वृद्धं तालव्यमाइ भवति इति।'
अर्थात्-इस पुष्पसूत्र के तृतीय अध्याय के एक सूत्र का अवलम्बन करके जैमिनि ने मीमांसादर्शन के नवमाध्याय का नवमाधिकरण रचा है। जैसा कि अधिकरणमाला में कहा है- जैसा कि सामगान १० करनेवाले प्राचार्य कहते हैं-वृद्ध तालव्य आइ होता है।
अधिकरणमाला में जिस सूत्र का संकेत किया है, वह पुष्पसूत्र ३।१ इस प्रकार है- 'तालव्यमाथि यद् वृद्धम् अवृद्ध प्रकृत्या।'
पं० सत्यव्रतसामश्रमी के इस लेख से विदित होता है कि पुष्पसूत्र जैमिनि से पूर्ववर्ती है।
पुष्पसूत्र के दो पाठ-पुष्पसूत्र के उपाध्याय अजातशत्रु के भाष्य से प्रतीत होता है कि पुष्पसूत्र के दो प्रकार के पाठ हैं। एक पाठ वह है, जिस पर उपाध्याय अजातशत्रु का भाष्य है । और दूसरा पाठ वह है जिसमें प्रारम्भ के वे चार प्रपाठक भी सम्मिलित हैं, जिन पर अजातशत्रु की व्याख्या नहीं है।
२० उपाध्याय अजातशत्र का पाठ-पुष्पसूत्र पर उपाध्याय अजातशत्र का भाष्य काशी से प्रकाशित हुआ है। काशी संस्करण में प्रपाठक १-४ तक अजातशत्रु का भाष्य नहीं है। भाष्य का आरंभ पंचम प्रपाठक से होता है।
अजातशत्रु के पंचम प्रपाठक के भाष्य के प्रारम्भ में मंगलाचरण २५ उपलब्ध होता है । अगले किन्हीं प्रपाठकों के भाष्य के प्रारम्भ में मंगलाचरण नहीं है । इससे स्पष्ट है कि अजातशत्रु का भाष्य यहीं से
आरंभ होता है । और उसके पुष्पसूत्र के पाठ का आरंभ भी वर्तमान में मुद्रित पञ्चम प्रपाठक से होता है । इस बात की पुष्टि पञ्चम