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प्रातिशाख्य आदि के प्रवक्ता और व्याख्याता
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१-आत्रेय-५॥३३; २।५; ६।८। -काण्डमायन-६।१; २-वाल्मीकि-५॥३८; २१६, ३०; २।३७..
१०-अग्निवेश्य-६।४। ३-पौष्करसादि-५५३९,४०; २।१।१६; ११-प्लाक्षायण ६।६२।६। २।५।६।
२७३। ४-प्लाक्षि-५।४०; १६; २१६। १२-वात्सप्र १०।२३।
१३-अग्निवेश्यायन २।२।३२॥ ५-कौण्डिन्य-५।४०; २।५।४।२।६।३; १४-शांखायन-२।३।६।
२।६।। ६-गौतम-५॥४०॥
१५-शैत्यायन २।५।१, २।५। १० ७-सांकृत्य-८।२०।१०।२२;
६; २।६।२, ३। २।४।१७।
१६-कोहलीयपुत्र २।५।२।. ८-उख्य-८।२१।१०।२१; १७--भारद्वाज २।५।३।
२।४।२५॥ इससे अधिक हम इस पार्षद के विषय में कुछ नहीं जानते।
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८-चारायणि
आचार्य चारायणि-प्रोक्त चाराणीय प्रातिशाख्य सम्प्रति अनुपलब्ध है । लौगाक्षिगृह्यसूत्र के व्याख्याता देवपाल ने कण्डिका ५ सूत्र १ की टीका में कृच्छ शब्द की व्याख्या में लिखा है... 'कृतस्य पापस्य छूदनं वा कृच्छमिति निर्वचनम् । वर्णलोप- २० श्चछान्दसत्वात् कृच्छ (? कृत) शब्दस्य । तथा च चारायणिसूत्रम्'पुरुकृते च्छच्छ्योः ' इति पुरुशब्दः कृतशब्दश्च लुप्यते यथासंख्यं छे छ्रे परतः। पुरुच्छदनं पुच्छम्, कृतस्य च्छदनं विनाशनं कृच्छमिति । भाग १, पृष्ठ १०१, १०२।
इस उद्धरण से इतना स्पष्ट है कि चारायणि प्राचार्य प्रोक्त कोई २५ लक्षण-ग्रन्थ अवश्य था, जिसमें पुच्छ-कृच्छ शब्दों का साधुत्व दर्शाया गया था। यह लक्षण-ग्रन्य पार्षद रूप था, अथवा व्याकरणरूप था, यह कह सकना कठिन है।