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संस्कृत व्याकरण- शास्त्र का इतिहास
वार्तिककार वररुचि कात्यायन और विक्रमार्क - सभ्य वररुचि प्रसिद्ध
हैं ।
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(३) माहिषेय
माहिषेय विरचित प्रातिशाख्य मद्रास विश्वविद्यालय की ग्रन्थमाला में छप चुका है ।
इस भाष्य में साक्षात् किसी प्राचार्य का नाम उल्लिखित नहीं है | और ना ही ग्रन्थकार ने अपना कुछ परिचय दिया है । इसलिए इसका देश काल आदि अज्ञात है ।
मुद्रित माहिषेय भाष्य का कोश अ० २३, सूत्र १५ से अ० २४ १० सूत्र ३ तक खण्डित है । अतः इन सूत्रों पर वैदिकभूषण अथवा भूषणरत्न नाम्नी व्याख्या जोड़कर ग्रन्थ को पूरा किया है ।
(४) सोमयार्थ
सोमयार्य विरचित त्रिभाष्यरत्नव्याख्या का मैसूर से सुन्दर संस्करण प्रकाशित हुआ है । इसके सम्पादक पं० कस्तूरि रङ्गाचार्य १५ के लेखानुसार मैसूरराजकीय कोशागार से उपलब्ध तालपत्रमय एक हस्तलेख में ही निम्न पद्य उपलब्ध होता है - '
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'त्रिलोचन ध्यान विशुद्धकौमुदी विनिन्द्रचेतः कुमुदः कलानिधिः । स सोमवार्यो विततान सम्मतं विपश्चितां भाष्यमिदं सुबोधकम् ।। सोमयार्य ने किस वंश, देश और काल को अपने जन्म से अलंकृत किया, यह सर्वथा अज्ञात है ।
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सोमयार्य द्वारा उद्धृत ग्रन्थों और ग्रन्थकारों में प्रायः सभी प्राचीन हैं । केवल १८ । १ में उद्धृत कालनिर्णय - शिक्षा ही ऐसी है, जिसके आधार पर कदाचित् सोमयार्य के काल की पूर्व सीमा निर्धारित की जा सके | कालनिर्णय - शिक्षा अनन्ताश्रित मुक्तीश्वराचार्य २५ कृत है । मुक्तीश्वराचार्य का भी काल यादि सम्प्रति प्रज्ञात है ।
गार्ग्य गोपाल यज्वा ने वैदिकाभरण में सोमयार्य के त्रिभाष्यरत्न के पाठों को बहुधा उद्धृत करके उनका खण्डन किया है । इससे
१. मैसूर संस्करण, भूमिका पृष्ठ १६ ।