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संस्कृत व्याकरण - शास्त्र का इतिहास
अनुकरण करने में अपना व्यक्तिगत कल्याण समझते हुए भारतीय वाङमय और देश तथा जाति के प्रति जो घोर विद्रोह कर रहे हैं, उस से भारतीय न जाने कितने समय तक पाश्चात्त्य विद्वानों के बौद्धिक पारतन्त्र्य-निबद्ध बने रहेंगे । इस महत्त्वपूर्ण प्रश्न पर वे ५ विचार ही नहीं करते ।
यदि भारतीय वाङ् मय के अनुसन्धान क्षेत्र में महामहोपाध्याय गणपति शास्त्री, साम्वशास्त्री, कस्तूरि रङ्गाचार्य, पं० भगवद्दत्त सदृश प्रतिभाशाली विद्वान् पाश्चात्त्य मनघड़न्त कल्पनात्रों का प्रतिकार न करते, तो अनेक विषयों में भारतीय प्राचीन इतिहास को गौरव १० प्राप्त न होता ।
व्याख्याकार
(१) आत्रेय
श्रात्रेय नामक किसी महानुभाव ने तैत्तिरीय प्रातिशाख्य पर भाष्य लिखा था । तैत्तिरीय प्रातिशाख्य की सोमयार्य कृत त्रिभाष्य१५ रत्न व्याख्या में इस भाष्यकार प्रात्रेय का दो स्थानों पर उल्लेख मिलता है
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१. सोमयार्य अपने त्रिभाष्यरत्न के प्रारम्भ में लिखता है'व्याख्यान प्रातिशाख्यस्य वीक्ष्य वाररुचादिकम् । कृतं त्रिभाष्यरत्नं यद्भासते भूसुरप्रियम् ॥' इस श्लोक में त्रिभाष्यरत्न संज्ञा से संकेतित तीन भाष्यों का निर्देश करते हुए वाररुचादिक भाष्यों का उल्लेख किया है। वाररुचादिक में प्रादि पद से किन भाष्यों का ग्रहण अभिप्रेत है, इसका निर्देश स्वयं व्याख्याकार करता है
'द्यादिपदेन आत्रेय माहिषेये गृह्यते ।' पृष्ठ १ ।
अर्थात् प्रादि पद से प्रात्रेय और माहिषेय के भाष्य अभिप्रेत हैं । २. एकसमुत्थः प्राणः एकप्राणः, तस्य भावस्तद्भावः तस्मिन् इत्यात्रेयमतम् । पृष्ठ १६३ ।
इस स्थल के पाठ से स्पष्ट है कि किसी प्रात्रेय ने तैत्तिरीय प्रातिशाख्य पर कोई व्याख्या लिखी थी ।