________________
प्रातिशाख्य आदि के प्रवक्ता और व्याख्याता
३६५
ग्रन्थकार - इस प्रातिशाख्य का प्रवक्ता कौन आचार्य है, यह ज्ञात है ।
काल - हरदत्त कृत पदमञ्जरी भाग २, पृष्ठ १०३६ से विदित होता है कि यह प्रातिशाख्य पाणिनि से पूर्ववर्ती है । हमारे विचार में सभी प्रातिशाख्य पाणिनि से प्राचीन हैं ।
ह्निन के आक्षेप - तैत्तिरीय प्रातिशाख्य तथा इसके त्रिभाष्यरत्न पर ह्निन ने अनेक प्राक्षेप किये हैं, अनेक दोष दर्शाए हैं ।
आक्षेपां का समाधान - ह्विनि द्वारा प्रदर्शित दोषों का तैत्तिरीय प्रातिशाख्य के मैसूर संस्करण के सम्पादक पण्डितरत्न कस्तूरि रङ्गाचार्य ने अत्यन्त प्रौढ़, युक्तियुक्त और मुंहतोड़ विस्तृत उत्तर १० दिया है ।
-
कस्तूरि रङ्गाचार्य का सत्साहस – आज से लगभग ५५ वर्षं पूर्व पाश्चात्त्य विद्वानों के पदचिह्नों का अनुगमन न करके निके आक्षेपों का निराकरण करके प्रार्षमत की युक्तियुक्तता दर्शाने का पं० कस्तूरि रङ्गाचार्य ने अद्भुत सत्साहस दर्शाया है । अपनी भूमिका १५ के अन्त में ह्विनि के उपसंहार वचन का निर्देश करके पण्डितरत्न ने लिखा है
' इति दूषणं न केवलं त्रिभाष्यरत्नकारं प्रति श्रपितु सर्वान् भारतीयान् प्रति च निगमितं तदिदं समुचितमेव भारतीयज्ञान विज्ञानकोशलासहिष्णुनाम् इति विजानन्त्येव दिवेचकाः ।'
अर्थात् - [ ह्विट्न द्वारा दर्शाया गया अन्तिम ] दूषण केवल त्रिभाष्यरत्न के लेखक के प्रति ही नहीं है, अपितु समस्त भारतीयों के प्रति दर्शाया है । भारतीय ज्ञान-विज्ञान कौशल के प्रति असहिष्णु पाश्चात्त्यों को ऐसा दूषण दर्शाना समुचित ही है ।
२०
२५
यदि हमारे नवनवोदित तथा अनुसन्धान क्षेत्र में प्रसिद्ध भारतीय विद्वान् पाश्चात्त्य विद्वानों द्वारा जानबूझ कर अन्यथा प्रसारित मतों का प्रांख मींचकर अन्ध अनुसरण करने की प्रवृत्ति का परित्याग करके भारतीय वाङ् मय का भारतीय दृष्टिकोण से अध्ययन करें, अनुसन्धान करें, तो देश और जाति का महाकल्याण हो । परन्तु दुर्दैव से आज भारत के स्वतन्त्र हो जाने पर भी भारतीय विद्वान् पाश्चात्यों का अन्ध ३०