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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
अनिश्चित है। बालकृष्ण गोडशे द्वारा सं० १८०२ वि० में लिखी गई प्रातिशाख्यप्रदीप शिक्षा में ज्योत्स्ना का दो स्थानों पर निर्देश मिलता है । यथा
क ज्योत्स्नायां प्रकारत्रयेण रथ उक्तः, स तत्रव द्रष्टव्यः । ५ पृष्ठ ३०५।
ख-शेषं ज्योत्स्नादिषु ज्ञेयम् । पृष्ठ ३०६ ।
इन निर्देशों से स्पष्ट है कि श्रीराम शर्मा प्रणीत ज्योत्स्ना का काल वि० सं० १८०२ से पूर्ववर्ती है।
(४) राम अग्निहोत्री (सं० १८१३ वि०) १० राम अग्निहोत्री नामक किसी विद्वान् ने कात्यायन प्रातिशाख्य
पर प्रातिशाख्यदीपिका नाम्नी व्याख्या लिखी है। इसका एक हस्तलेख दक्खन कालेज पूना के संग्रह में है। इसकी संख्या २८७ है ।
परिचय -राम अग्निहोत्री ने स्वव्याख्या के प्रारम्भ में अपना कुछ भी परिचय नहीं दिया । ग्रन्थ के अन्त में निम्न पाठ मिलता है१५ इति सदाशिवाग्निहोत्रिसुतरामाग्निहोत्रिकृता प्रातिशाख्यदीपिका समाप्ता । संख्या ३.१६ । शाकः षोडशसप्ताष्टभूयो हरिहरात्मको ।'
इससे इतना ज्ञात होता है कि राम अग्निहोत्री के पिता का नाम सदाशिव अग्निहोत्री था।
श्री गुरुवर भगवत्प्रसाद वेदाचार्य प्राध्या० सं० वि० वि० वाराणसी २० के संग्रह में भी शाके १७०६ सं० १८४४ वि० में लिखे किसी हस्तलेख की एक प्रतिलिपि है।
उसके अन्त के श्लोकों का पाठ अत्यन्त भ्रष्ट है । पुनरपि उनसे यह विदित होता है कि सदाशिव के पिता का नाम गोविन्द था,
गोविन्द का भाई नसिह था। इसके पिता का नाम वालकृष्ण था, २५ और गोत्र पराशर था । गुरु का नाम वैद्यनाथ था।
काल -पूना के हस्तलेख के अन्त में शक सं० १६७८ अर्थात् वि० सं० १८१३ का निर्देश है । यह ग्रन्थरचना का काल है, अथवा प्रतिलिपि करने का यह अज्ञात है। परन्तु इससे इतना निश्चित है कि उक्त ग्रन्थ सं० १८१३ वि० से उत्तरवर्ती नहीं है।