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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
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काल-श्री पं० भगवद्दत्त जी ने 'वैदिक वाङमय का इतिहास' के वेदों के भाष्यकार नामक भाग में पृष्ठ १०० पर अनन्त का काल सं० १७०० के समीप लिखा है । पुनः पृष्ठ १०२ पर लिखा है'काशीवासी महीधर भी अपने भाष्य को वेददीप कहता है। सम्भव है अनन्त और महीधर समकालिक हों।'
निश्चित काल-अनन्त देव विरचित विधानपारिजात ग्रन्थ का एक हस्तलेख इण्डिया आफिस लन्दन के संग्रह में हैं ।' उसके अन्त में निम्न श्लोक पठित है
चन्द्रच्चन्द्राकलेव शुद्धगुणभृच्छीनागदेवाभिधः तस्माच्छोमदनन्तदेव प्राविरभवद् यद्यज्ज्ञानभक्त्यादिकेध्वन्तो नास्ति गुणेषु यस्य च हरिः प्रेष्ठो वरीवर्तते तेनायं रचितो विधानदिविषद्वक्षोऽथिसर्वप्रदः
काले द्वयष्टषडेकलांककमिते (?) काश्यामगात पूर्णताम् ।
इसके अन्तिम चरण में विधानदिविषद् वृक्ष अर्थात् विधानपारि१५ जात का रचना काल सं० १६८२ लिखा है । प्रथम श्लोक में
'चन्द्रात्' पद श्लेष से नागदेव के पिता के नाम का निर्देशक है। ऐसा हमारा विचार है।
अनन्त ने प्रतिज्ञासूत्र परिशिष्ट ११३ की व्याख्या में महीधर का उल्लेख किया है
'वाजमन्नं सनिनमस्यास्तीति वाचसनिरिति महीधराचार्याः मन्त्रभाष्ये व्याख्यातवन्तः । वाज० प्राति० काशी सं०, पृष्ठ ४०६ ।
यह पंक्ति महीधर के यजुर्वेदभाष्य के उपोद्घात में इस प्रकार पठित है
'वाजस्यान्नस्य सनिर्दानं यस्य स वाजसनिः।' प्रतिज्ञासूत्र-भाष्य का पाठ भ्रष्ट है।
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१. द्र०- इण्डिया आफिस पुस्तकालय सूचीपत्र भाग ३ पृष्ठ ४३७ सं० १४६८ ।
२. प्रतिज्ञासूत्र का व्याख्याता अनन्त नहीं है, ऐसा हमारा विचार है। द्र०- इसी अध्याय में आगे प्रतिज्ञासूत्र के प्रकरण में ।