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प्रातिशाख्य आदि के प्रवक्ता और व्याख्याता
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आदि के नाम अनेक स्थानों पर उपलब्ध होते हैं। उन्हें देखकर पाश्चात्त्य विद्वानों ने भारतीय आर्ष वाङमय को अर्वाक्कालिक सिद्ध करने के लिए यह मत प्रसारित किया है कि बौद्ध ग्रन्थों में स्मृत प्राश्वलायन प्रादि ब्राह्मण ही प्राश्वलायन आदि श्रौतसूत्रों और गृह्यसूत्रों के प्रवक्ता हैं । परन्तु यह मत सर्वथा भ्रान्त है। बौद्धों के ग्रन्थों में उल्लिखित आश्वलायन आदि को श्रौतगह्य आदि का प्रवक्ता कहीं नहीं लिखा । वस्तुतः बौद्ध ग्रन्थों में प्राचीन भारतीय पद्धति के अनुसार उस काल में विद्यमान विशिष्ट विद्वानों का, जो महात्मा बुद्ध के सम्पर्क में आए, उनका गोत्रनामों से उल्लेख किया है। अतः त्रिपिटकों में प्रयक्त आश्वलायन आदि नाम गोत्र-नाम हैं, १० आद्य व्यक्ति के नहीं हैं।
३-बाष्कल-पार्षद का प्रवक्ता बाष्कल चरण के प्रातिशाख्य का यद्यपि प्रत्यक्ष निर्देश नहीं मिलता, तथापि शाखांयन श्रौत १२।१३।५ के वरदत्त सुत आनीय के भाष्य के एक वचन से उसकी अतिशय सम्भावना होती है। वह १५ वचन इस प्रकार है
'उपद्रुतो नाम सन्धिर्बाष्कलादीनां प्रसिद्धः । तस्योदाहरणम् ।' . इसमें बाष्कल चरण की शाखाओं में निर्दिष्ट उपद्रुत नाम की सन्धि का उल्लेख है। निश्चय ही इस सन्धि का विधान उसके प्रातिशाख्य में रहा होगा।
२० इसी प्रकार शांखायन श्रौत १।२।५ के भाष्य में निम्न वचन . द्रष्टव्य है
'किन्तु बाष्कलानामप्रगृह्यः, तदथं वचनम् ।' : बाष्कल पार्षद के सम्बन्ध में इससे अधिक हमें कुछ ज्ञात नहीं है।
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४- शालायन पार्षद का प्रवक्ता • अलवर के राजकीय संग्रह में प्रातिशाख्य का एक हस्तलेख विद्यमान है। उसके अन्त में पाठ है