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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
तस्य वृत्तिः कृता येन तम् आत्रेयं प्रणम्य च ।
तेषां प्रसादेनास्याहं स्वशक्त्या वृत्तिमारभे ।।' इस पाठ के अनुसार किसी आत्रेय ने ऋक्पार्षद की वृत्ति लिखी थी। यह वृत्तिकार प्रात्रेय कौन है, यह अज्ञात है। एक पात्रेय तैत्तिरीय प्रातिशाख्य ५।३०; १७।८, तथा मैत्रायणीय प्रातिशाख्य ५।३३; २।५; ६।८ में स्मृत है । एक प्रात्रेय तैत्तिरीय संहिता का पदकार है। प्रातिशाख्यों में स्मृत और तैत्तिरीयसंहिता का पदकार दोनों निश्चित रूप से एक हैं । ऋक्पार्षद वृत्तिकार यदि यही आत्रेय
हो, तो यह प्रार्षयुगीन व्यक्ति होगा। परन्तु इस विषय में निश्चित १० रूप से अभी कुछ नहीं कह सकते।
तैत्तिरीय प्रातिशाख्य ५।१ की व्याख्या में त्रिभाष्यरत्न व्याख्याकार सोमार्य ने आत्रेय का एक पाठ उद्धृत किया है। उससे विदित होता है कि आत्रेय ने तैत्तिरीय प्रातिशाख्य की व्याख्या की
थी। ऋक्प्रातिशाख्य और तैत्तिरीय प्रातिशाख्य के व्याख्याकार १५ पात्रेयों के एकत्व की सम्भावना अधिक है।
आत्रेय की एक शिक्षा भी है। इसका एक हस्तलेख विश्वेश्वरानन्द शोध-संस्थान होशियारपुर के संग्रह में है । द्र०- संख्या ४३७१, पृष्ठ ३००।
(३) विष्णुमित्र विष्णुमित्र ने ऋक्प्रातिशाख्य पर एक उत्तम वृत्ति लिखी है। यह वृत्ति अभी तक केवल दो वर्गों पर ही मुद्रित हुई है। इसके हस्तलेख अनेक स्थानों पर विद्यमान हैं। इसका कुछ अंश श्री पं० भगवद्दत्त जी देहली के संग्रह में भी है।
परिचय-विष्णुमित्र ने अपनी वृत्ति के प्रारम्भ में जो परिचय २५ दिया है, वह इस प्रकार है
१. दक्खन कालेज का हस्तलेख, संख्या ५५ । २. यस्याः पदकृदात्रेयो वृत्तिकारस्तु कुडिनः । तैत्तिरीय काण्डानुक्रमणी।
३. एकसमुत्थः प्राणः एकप्राणः, तस्य भावस्तद्भावः, तस्मिन् इत्यायमतम् । पृठ १६२, मैसूर संस्क० ।
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