________________
प्रातिशाख्य आदि के प्रवक्ता और व्याख्याता
३७५
महान् गौरव होता है, और दोनों वाक्यों का परस्पर संबन्ध नहीं बनता।
और भी- उव्वट ने उक्त श्लोक की विस्तृत व्याख्या करके शास्त्रप्रयोजन बताते हुए लिखा है. 'तथा चाथर्वणप्रातिशास्य इदमेव प्रयोजनमुक्तम्-एवमिहेति च ५ विभाषा प्राप्तं सामान्येन' (१।२) पृष्ठ २३ । ___ यहां उव्वट ने उक्त श्लोक-निर्दिष्ट प्रयोजन ही शास्त्र का मुख्य प्रयोजन है, इसकी पुष्टि के लिए अथर्व प्रातिशाख्य का वचन उद्धृत किया है। इससे भी यही विदित होता है कि जैसे अथर्व प्रातिशाख्य का प्रयोजन-निर्देशक वचन उसका अवयव है, वैसे ही ऋवपार्षद का १० प्रयोजन-निर्देशक उक्त श्लोक भी ऋवपार्षद का अवयव है।
इस विवेचना से स्पष्ट है कि उव्वट के मत में प्रातिशाख्य का आरम्भ उक्त श्लोक से होता है।
विष्णुमित्रवृत्ति में उक्त श्लोक है अथवा नहीं, हम नहीं कह सकते। क्योंकि इस समय हमारे पास विष्णुमित्र कृत पार्षदवृत्ति का १५ हस्तलेख नहीं है । परन्तु विष्णुमित्र की वर्गद्वयवृति से हमें सन्देह होता है कि उसके ग्रन्थ में यह श्लोक नहीं रहा होगा। इसमें निम्न हेतु हैं
(१) विष्णुमित्र वर्गद्वय के द्वितीय श्लोक की अवतरणिका में लिखता है
२० ‘एवं शास्त्रादौ नमस्कारं प्रतिज्ञां च कृत्वा शास्त्रप्रयोजनमाहमाण्डकेय संहितां वायुमाह तथाकाश चारय माक्षव्य एव ।' इत्यादि।
इससे स्पष्ट है कि विष्णुमित्र के पार्षद ग्रन्थ में उव्वट स्वीकृत प्रयोजन-बोधक श्लोक नहीं था।
(२) आगे वर्गद्वयवृत्ति के अन्त में पुनः लिखता है‘एवं वर्णसमाम्नायमुक्त वा तत्र लघुनोपायेन संज्ञापरिभाषाभ्यां शास्त्रे संव्यवहारसिद्धि मन्यमानः संज्ञासंज्ञिसंबन्धार्थमाह - (पृष्ठ २०)।
२५