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- संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
___ एवं वर्णसमाम्नायमुक्त्वा तत्र लघुनोपायेन संज्ञापरिभाषाम्यां शास्त्रे संव्यवहारसिद्धि मन्यमानः संज्ञासंज्ञिसंबन्धार्थमाह'--(पृष्ठ २०)
इससे भी यही ध्वनित होता है कि जिसने वर्गद्वय में समाम्नाय पढ़ा, वही संज्ञासंज्ञि-संवन्ध बताने के लिए अगले सूत्रों को पढ़ता है। उव्वट ने शास्त्र का प्रारम्भ
'शिक्षाछन्दोव्याकरणः सामान्येनोक्तलक्षणम् ।
तदेवमिह शाखायामिति शास्त्रप्रयोजनम् ।। श्लोक से माना है। तदनन्तर अष्टौ समानाक्षराण्यादितः आदि संज्ञानिदर्शक सूत्र का पाठ स्वीकार किया है। _____ डा० मङ्गलदेव जी को भूल-डा० मङ्गलदेव जी ने इस श्लोक को पार्षद का वचन न समझकर उन्वट का वचन स्वीकार कर छोटे अक्षरों में छापा है । परन्तु यह उनकी भूल है। हो सकता है, उन्हें यह भूल पूर्व संस्करणों से विरासत में मिली हो । अस्तु,
उव्वट उक्त श्लोक को पार्षद का अङ्ग मानता है। वह इसके " प्रारम्भ में लिखता है-किमर्थमिदमारभ्यते अर्थात् यह पार्षद किस
लिए बनाया जा रहा है ? इसके उत्तर में उक्त श्लोक पढ़कर लिखता है
'प्रातिशाख्यप्रयोजनमनेन श्लोकेन उच्यते।' अर्थात्-इस श्लोक से प्रातिशाख्य की रचना का प्रयोजन
२० बताया है
___ इससे भी यही ध्वनित होता है कि रचनाप्रयोजन का निर्देशक वचन प्रातिशाख्य का अंग है। इतना ही नहीं, अष्टौ समानाक्षराण्यादितः सूत्र से पूर्व वह लिखता है
'उक्त शास्त्रप्रयोजनम् । प्रथमपटले तु संज्ञाः परिभाषाश्चोच्यन्ते । २५ तदर्थमिदमारभ्यते-अष्टौ..।'
. इस वाक्य में उक्तम् और उच्यन्ते दोनों क्रियाओं का एक ही कर्ता होने पर वाक्य का सामञ्जस्य बनता है। अन्यथा मया भाष्य. कृता प्रयोजनमुक्तम्, तदर्थमिदमारभ्यते पार्षदकृता ऐसी कल्पना में