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________________ ३७४ - संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ___ एवं वर्णसमाम्नायमुक्त्वा तत्र लघुनोपायेन संज्ञापरिभाषाम्यां शास्त्रे संव्यवहारसिद्धि मन्यमानः संज्ञासंज्ञिसंबन्धार्थमाह'--(पृष्ठ २०) इससे भी यही ध्वनित होता है कि जिसने वर्गद्वय में समाम्नाय पढ़ा, वही संज्ञासंज्ञि-संवन्ध बताने के लिए अगले सूत्रों को पढ़ता है। उव्वट ने शास्त्र का प्रारम्भ 'शिक्षाछन्दोव्याकरणः सामान्येनोक्तलक्षणम् । तदेवमिह शाखायामिति शास्त्रप्रयोजनम् ।। श्लोक से माना है। तदनन्तर अष्टौ समानाक्षराण्यादितः आदि संज्ञानिदर्शक सूत्र का पाठ स्वीकार किया है। _____ डा० मङ्गलदेव जी को भूल-डा० मङ्गलदेव जी ने इस श्लोक को पार्षद का वचन न समझकर उन्वट का वचन स्वीकार कर छोटे अक्षरों में छापा है । परन्तु यह उनकी भूल है। हो सकता है, उन्हें यह भूल पूर्व संस्करणों से विरासत में मिली हो । अस्तु, उव्वट उक्त श्लोक को पार्षद का अङ्ग मानता है। वह इसके " प्रारम्भ में लिखता है-किमर्थमिदमारभ्यते अर्थात् यह पार्षद किस लिए बनाया जा रहा है ? इसके उत्तर में उक्त श्लोक पढ़कर लिखता है 'प्रातिशाख्यप्रयोजनमनेन श्लोकेन उच्यते।' अर्थात्-इस श्लोक से प्रातिशाख्य की रचना का प्रयोजन २० बताया है ___ इससे भी यही ध्वनित होता है कि रचनाप्रयोजन का निर्देशक वचन प्रातिशाख्य का अंग है। इतना ही नहीं, अष्टौ समानाक्षराण्यादितः सूत्र से पूर्व वह लिखता है 'उक्त शास्त्रप्रयोजनम् । प्रथमपटले तु संज्ञाः परिभाषाश्चोच्यन्ते । २५ तदर्थमिदमारभ्यते-अष्टौ..।' . इस वाक्य में उक्तम् और उच्यन्ते दोनों क्रियाओं का एक ही कर्ता होने पर वाक्य का सामञ्जस्य बनता है। अन्यथा मया भाष्य. कृता प्रयोजनमुक्तम्, तदर्थमिदमारभ्यते पार्षदकृता ऐसी कल्पना में
SR No.002283
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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