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प्रातिशाख्य आदि के प्रवक्ता और व्याख्याता
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माना जा सकता। इस प्रकार पार्षद-प्रवचन का काल विक्रम से ३००० तीन सहस्र वर्ष पूर्व रहा होगा।
ऋक्प्रातिशाख्य का सामान्य परिचय-इस प्रातिशाख्य में १८ पटल में छन्दोबद्ध सूत्र हैं।
यह पार्षद अन्य पार्षदों से कुछ वैशिष्ट्य रखता है । अन्य पार्षदों ५ में प्रायः सन्धि आदि के नियमों, पद-पाठ तथा क्रम-पाठ के नियमों का ही उल्लेख रहता है। यदि शिक्षा का किसी में वर्णन मिलता भी है, तो बहुत साधारण । इस पार्षद में १३ वें १४ वें पटलों में विस्तार से शिक्षा का विषय वर्णित है । १६-१८ तक तीन पटलों में छन्दःशास्त्र का विस्तार से विधान है।
काशिका ४।३।१०६ में शौनकीया शिक्षा का उल्लेख है। यह शौनकीया शिक्षा ऋक्प्रातिशाख्य अन्तर्गत १३-१४ पटल ही है, अथवा शौनक ने किसी स्वतन्त्र शिक्षा-ग्रन्थ का भी प्रवचन किया था, यह अज्ञात है।
ऋषप्रातिशाख्य का प्रारम्भ-ऋक्प्रातिशाख्य का प्रारम्भ कहां १५ से होता है, इस विषय में वृत्तिकार विष्णुमित्र और भाष्यकार उव्वष्ट का मत-भेद है। डा० मंगलदेव शास्त्री के संस्करण के प्रारम्भ में विष्णुमित्रकृत वर्गद्वय-वृत्ति छपी है । इस वृत्ति के अनुसार ये दोनों वर्ग प्रातिशाख्य के आद्य यवयव हैं । इति वर्णराशिक्रमश्च (सूत्र १०) की व्याख्या में विष्णुमित्र ने वर्गद्वय अन्तर्गत वर्णसमाम्नाय अथवा वर्णक्रम २० निर्देश का प्रयोजन देते हुए लिखा है
'वर्णक्रमश्चायमेव वेदितव्य उक्तप्रकारेण । वक्ष्यत्ति-ऋकारादयो दश नामिनः स्वराः (१०६५) इति, तथा परेष्वकारमोजयोः (२।१८) प्रोकारं युग्मयोः (२०१६) इति । अन्याः सप्त तेषामघोषाः(१।११) तथा प्रथमपञ्चमौ च द्वा ऊष्मणाम् (१।३६) इति एवमादिष्वयं २५ क्रमो वेदितव्यः।' (पृष्ठ २०)।
इसमें वक्ष्यति क्रिया के निर्देश और वर्णक्रम का प्रयोजन बतलानेवाले सूत्रों के निर्देश से स्पष्ट है कि वृत्तिकार वर्गद्वय तथा उत्तर भाग का एक ही कर्ता मानता है। इतना ही नहीं, वह पुनः लिखता है