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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
अर्थात्-गृहपति शौनक ने सत्र में दीक्षित नैमिषारण्यस्थ मुनियों की प्रेरणा से द्वादशाह नामक सत्र में इस शास्त्र का प्रवचन किया। इस प्रकार शास्त्र का अवतरण पूर्वाचार्यों द्वारा स्मरण किया जाता है।
विष्णुमित्र के उपर्युक्त शास्त्रावतार निर्देश से स्पष्ट है कि इस पार्षद के प्रवचन का इतिहास पूर्व व्याख्याकार परम्परा से स्मरण करते चले आ रहे हैं। अतः यह इतिहास परम प्रामाणिक है। इसमें किसी प्रकार की आशंका को कोई स्थान नहीं है।
___ काल-कुलपति शौनक के काल के सम्बन्ध में हम इस ग्रन्थ के १० प्रथम भाग में आचार्य पाणिनि के प्रकरण में (पृष्ठ २१८, २१९ च०
सं०) विस्तार से लिख चुके हैं। तदनुसार पार्षद-प्रवक्ता शौनक का काल सामान्यतया भारत-युद्ध (३१०० वि० पूर्व) से लेकर महाराज अधिसीम के काल (भारतयद्धोत्तर २५० वर्ष ३८५० वि० पूर्व)
तक है । परन्तु यास्क ने अपनी तैत्तिरीय सर्वानुक्रमणी में शौनक के १५ प्रातिशाख्य-निर्दिष्ट छन्दोमत का नामपुरःसर निर्देश किया है। अतः
स्पष्ट है कि शौनक ने इस पार्षद का प्रवचन यास्क के सर्वानुक्रमणी प्रवचन से पूर्व किया था। उधर शौनक ने भी इस प्रातिशाख्य में यास्क के किसी ऋक्सम्बन्धी ग्रन्य से यास्कीय मत को उद्धत किया है। महाभारत से ज्ञात होता है कि यास्क ने निरुक्त का प्रवचन महाभारत के प्रवचन से पूर्व किया था। इसलिए शौनक के पार्षदप्रवचन का काल भारतयुद्ध से लगभग १०० वर्ष से अधिक उत्तर नहीं
१. द्वादशिनस्त्रयोऽष्टाक्षराश्च जगती ज्योतिष्मती । साऽपि त्रिष्टुबिति शौनकः । छन्दोविचितिभाष्यकार पेत्ता शास्त्री (हृषीकेश) द्वारा उद्धृत । द्र०
वैदिक वाङ्मय का इतिहास, वेदों के भाष्यकार भाग, पृष्ठ २०५ पर निर्दिष्ट। २५ शौनक का उक्त मत ऋक्प्राति० १६७० में निर्दिष्ट है।
२. न दाशतय्येकपदा काचिदस्तीति वै यास्का । ऋक्प्राति० १७।४२।
३. स्तुत्वा मां शिपिविष्टेति यास्क ऋषिरुदारधीः । मत्प्रसादादधो नष्टं निरुक्तमभिजम्मिवान् ॥ शान्ति० ३४२।७३॥