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शब्दों के धातुजत्व और धातु के स्वरूप पर विचार, १५
स्वामी दयानन्द सरस्वती ही ऐसे वैयाकरण व्यक्ति हैं, जो औणादिक शब्दों में किसी को भी रूढ नहीं मानते । वे प्रत्येक औणादिक शब्द को मूलतः शुद्ध यौगिक मानते हैं, और अौत्तरकालिक प्रसिद्धि के अनुसार उन्हें योगरूढ स्वीकार करते हैं । इसी दृष्टि से स्वामी दयानन्द सरस्वती ने प्रत्येक प्रोणादिक शब्द के शुद्ध यौगिक और योगरूढ ५ दो-दो प्रकार के अर्थ दर्शाए हैं । यथापाति रक्षति स पायुः, रक्षकः गुदेन्द्रियं वा । उणादिकोश १॥१॥
यहां 'पायु' को यौगिक मानकर प्रथम 'रक्षक' अर्थ दर्शाया है, और योगरूढ मानकर 'गुदेन्द्रिय' । इसी प्रकार सर्वत्र दो-दो प्रकार के अर्थ दर्शाए हैं।' ___ इस दृष्टि से स्वामी दयानन्द सरस्वती की उणादिवृत्ति स्वल्पाक्षरा होते हुए भी प्रोणादिक वाङमय में पत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान रखतो है। इस पर अधिक विचार यथास्थान किया जायेगा।
सम्पूर्ण नाम शब्दों की रूढत्व में परिणति-पूर्वनिर्दिष्ट धात्वर्थअनुगमन के उत्तरोत्तर ह्रास के कारण संस्कृत भाषा के इतिहास में १५ एक ऐसा भी समय उपस्थित हो गया, जब पूर्वाचार्यों द्वारा असन्दिग्धरूप से यौगिक माने गए पाचक पक्ता आदि शब्द भी वृक्ष आदि शब्दों के समान रूढ मान लिए गए । कोई भी शब्द यौगिक अथवा योगरूढ नहीं रहा। अत एव कातन्त्र व्याकरण के मूल प्रवक्ता ने सम्पूर्ण कृदन्त भाग के प्रवचन को अनावश्यक समझ कर उसे अपने २० तन्त्र में स्थान नहीं दिया। इस घोर अज्ञानावृत दुरवस्था का संकेत कातन्त्र के व्याख्याकार दुर्गसिंह के निम्न शब्दों से मिलता है
वृक्षादिवदमी रूढा न कृतिना कृताः कृतः ।
कात्यायनेन ते सृष्टा विबुधप्रतिपत्तये ॥ अर्थात्- कृदन्त पाचक आदि शब्द भी वृक्ष आदि के समान रूढ २५ हैं । अतः ग्रन्थकार (शर्ववर्मा) ने कृदन्त शब्द विषयक सूत्र नहीं रचे । विबुध लोगों के परिज्ञान के लिए कात्यायन ने इन्हें रचा है।
१. इस वृत्ति में जहां-कहीं साक्षात् यौगिक अर्थ का निर्देश नहीं किया है, वहां व्युत्पत्ति-निर्देश से उसे यथावत् जान लेना चाहिये।