________________
३७०
संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
हमारे विचार में यह हेतु उस समय दिया जा सकता था, जब ऐन्द्र व्याकरण का कोई भी सूत्र प्रकाश में नहीं आया था। पर हमने ऐन्द्र तन्त्र के दो सूत्र बड़े परिश्रम से ढंढ़ कर प्रकाशित किये हैं
(द्र०-यही ग्रन्थ भाग १, पृष्ठ ६३-६४ च०सं०)। उनमें ऐन्द्र तन्त्र का ५ आदि सूत्र है-अथ वर्णसमूहः । इस सूत्र के उपलब्ध हो जाने पर यह
कल्पना स्वतः समाप्त हो जाती है कि ऐन्द्र तन्त्र में अक्षर-समाम्नाय पठित नहीं था। साथ ही यह भी विवेचनीय है कि प्रातिशाख्यो में से ऋक्प्रातिशाख्य के प्रारम्भ में दो वर्गों में अक्षर-समाम्नाय उपदिष्ट
है। इस अक्षर-समाम्नाय को मूल ग्रन्थ का अवयव न मानने पर १० अष्टौ समानाक्षराण्यादितः (११) सूत्ररचना सम्भव ही नहीं है।
इतना ही नहीं, वर्गद्वयवृत्तिनिर्दिष्ट अक्षर समाम्नाय क्रम न मानने पर ऋक्प्रातिशाख्य में उक्त अनेक सूत्र समझ में ही नहीं पा सकते। यथा-दुस्पृष्टं तु प्राग्धकाराच्चतुर्णाम् (१३।१०)। इस सूत्र में
हकार से पूर्व चार वर्ण यरलव विवक्षित हैं, उनका इसमें ईषत्-स्पृष्ट । प्रयत्न कहा है। लोक में श ष स ह इस क्रम से ह सव के अन्त में पठित है।
ऋक्प्रातिशाख्य के टीकाकार उव्वट को वर्गद्वयवत्ति या तो उपलब्ध नहीं हुई, अथवा वह उसे प्रातिशाख्य का भाग नहीं मानता था। अत एव उसने ऋक्प्रातिशाख्य में आश्रित अक्षरसमाम्नाय की उपपत्ति के लिए ११३ की वृत्ति में बड़ी क्लिष्ट कल्पना की है। हमारा विचार है कि उव्वट को देवमित्र सुत विष्णमित्र कृत ऋक्प्रातिशाख्य की व्याख्या, जिसका यह वर्गद्वयवृत्ति भाग है, उपलब्ध नहीं हुई। क्योंकि उसने अपनी टीका में विष्णुमित्र का कहीं उल्लेख नहीं किया। परन्तु यह भी एक आश्चर्य की बात है कि विष्णुमित्र कृत ऋक्प्रातिशाख्य व्याख्या के कई हस्तलेख आज भी विभिन्न पुस्तकालयों में सुरक्षित हैं। ___ जव प्रातिशाख्यों में ऋक्प्रातिशाख्य में अक्षरसमाम्नाय उपदिष्ट है तब यह सामान्यरूप से कहना कि प्रातिशाख्यों में अक्षरसमाम्नाय
का निर्देश नहीं है, चिन्त्य है । डा० वर्मा प्रभृति ऋक्तन्त्र को प्राति१० शाख्य ही मानते हैं, उस ऋक्तन्त्र में भी अक्षरसमाम्नाय आदि में
उपदिष्ट है।