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________________ २४७ प्रातिशाख्य आदि के प्रवक्ता और व्याख्याता ३६६ है। सच यह है कि ऊपर निकाले गये निष्कर्षों के अनुसार ये ग्रन्थ भी मूलतः प्रातिशाख्य ही हैं।' वर्माजी ने सम्भवतः मेरा ग्रन्थ मनोयोग से नहीं पढ़ा । यदि पढ़ा -- होता, तो मेरे नाम का निर्देश करके ऐसा अशुद्ध लेख कभी नहीं लिखते । मैंने तो स्पष्ट लिखा है- . 'प्रातिशाख्यों के अतिरिक्त तत्सदश अन्य निम्न निर्दिष्ट वैदिक व्याकरण उपलब्ध हैं।' पृष्ठ ७३ (च० सं०) । यहां मैंने तत्सदृश शब्द द्वारा ऋक्तन्त्र आदि को प्रातिशाख्य सदृश ग्रन्थ ही ध्वनित किया है। परन्तु प्रातिशाख्यों के अन्तर्गत इनका निर्देश न करने का प्रधान कारण यही है कि वैदिक-सम्प्रदाय में इन्हें १० प्रातिशाख्य नाम से कहीं स्मरण नहीं किया गया। यदि वर्मा जी को ऐसा कहीं उल्लेख मिला होता, तो वे उसका निर्देश करके मेरे मत को खण्डन विस्फोटक रीति से करते। . इनका प्रातिशाख्यों में अन्तर्भाव न करने का एक कारण यह भी है कि प्रातिशाख्य पृथक्-पृथक् शाखामों पर न लिखे जाकर स्व-प्व- ११ चरणगत सभी शाखाओं को दृष्टि में रखकर लिखे गये हैं। तब एक चरण के अनेक प्रातिशाख्य भला कैसे हो सकते हैं ? प्रातिशाख्य और ऐन्द्र सम्प्रदाय कतिपय पाश्चात्त्य एवं पौरस्त्य विद्वानों का मत है कि प्रातिशाख्यों का सम्बन्ध ऐन्द्र सम्प्रदाय से है। वे यह भी मानते हैं कि २. ऐन्द्र सम्प्रदाय प्राच्य सम्प्रदाय है। ये दोनों मत प्रायः कल्पना पर आश्रित है क्योंकि ऐन्द्र तन्त्र के उपलब्ध न होने से तुलनात्मक रीति से निश्चित सिद्धान्त की कल्पना नहीं की जा सकती। काशकस्त तन्त्र ऐन्द्र सम्प्रदाय का है, यह हमारा विचार भी कल्पना पर ही आश्रित है। प्रातिशाख्यों को ऐन्द्र सम्प्रदाय का मानने का प्रधान हेतु यह दिया जाता है कि ऐन्द्र सम्प्रदाय के कातन्त्र में अक्षर समाम्नाय का पाठ नहीं है, और प्रातिशाख्यों में भी अक्षर समाम्नाय का पाठ उपदिष्ट नहीं है।
SR No.002283
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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