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________________ प्रातिशाख्य आदि के प्रवक्ता और व्याख्याता प्रातिशाख्यों का स्वरूप प्रातिशाख्यों का सम्बन्ध तत्तत् वेद के तत्तत चरणों के साथ है, यह हम पूर्व लिख चुके हैं । यहां हम प्रातिशाख्यों के स्वरूप का वर्णन उनके प्रतिपाद्य विषय की दृष्टि से करते हैं। यास्क का कथन है कि प्रातिशाख्य पदप्रकृतिक हैं, अर्थात् पदों ५ को प्रकृति मानकर संहिता में होने वाले विपर्ययों का वर्णन करते हैं। प्रातिशाख्यों के अवलोकन से यह बात स्पष्ट प्रतीत होती है कि यास्क का निर्देश सामान्यरूप से युक्त है। परन्तु प्रातिशाख्यों में पदों में संहिता के कारण होनेवाले विकारों के अतिरिक्त शिक्षा (वर्णोच्चारणदिद्या) का भी सूक्ष्म विवेचन मिलता है। ऋक्प्राति- १० शाख्य में वर्णोच्चारण में होनेवाले दोषों का पर्याप्त सूक्ष्म विवेचन उपलब्ध होता है (यह भी शिक्षा का ही अङ्ग है)। सम्भवतः इसी दृष्टि से महाभाष्य १२३२ में पतञ्जलि ने लिखा है___ 'यद्येव सुहृत् किमन्यान्यप्येवंजातीयकानि नोपदिशति ? कानि पुनस्तानि ? स्थानकरणानुप्रदानानि । व्याकरणं नामेयमुत्तरा विद्या। १५ तोऽसौ छन्दःशास्त्रेष्वभिविनीत उपलब्ध्याधिगन्तुमुत्सहते। अर्थात्--यदि पाणिनि इतना सुहृत् है, तो इस प्रकार के अन्य विषयों का उपदेश क्यों नहीं करता ? वे क्या विषय हैं ? स्थान करण अनुप्रदान प्रादि । व्याकरण नामवाली उत्तरा (अगली) विद्या है । जो छन्दःशास्त्रों में शिक्षित हैं, वह उनकी उपलब्धि (ज्ञान) से २० जानने में समर्थ हैं। नागेश ने महाभाष्यप्रदीपोद्योत में छन्दःशास्त्र का अर्थ प्रातिशाख्य किया है। ऋक्प्रातिशाख्य में शिक्षा का विषय अन्य प्रातिशाख्यों की अपेक्षा अधिक विस्तृत है। साथ ही इसमें अन्य प्रातिशाख्यों से विलक्षण २५ वैदिक छन्दशास्त्र का भी सविस्तार वर्णन मिलता है। प्रातिशाख्यों में जहां संहिता के प्रभाव से होनेवाले वर्ण वा स्वरविपर्यय का वर्णन है, वहां पदपाठ-सम्बन्धी नियमों का भी उल्लेख १. पदप्रकृतिः संहिता, पदप्रकृतीनि सर्वचरणानां पार्षदानि । निरु०१॥१७॥
SR No.002283
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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