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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
समानार्थक हैं। दोनों का लोक प्रसिद्ध अर्थ 'सभा' है । परन्तु पार्षद र परिषद प्रयोगों की मूल प्रकृतियां सभा - सामान्य की वाचक नहीं हैं । इनसे 'एक चरणवाले विभिन्न शाखाध्येताओं की सभा' का ही बोध होता है।' इसलिए समान चरण की विभिन्न शाखाएं भी ५ लक्षणा से पषद् अथवा परिषद् कही जाती हैं, और उनके व्याख्या ग्रन्थ पार्षद अथवा पारिषद कहे जाते हैं ।
'श्राम्नातं परिषत् तस्य शास्त्रम् ।'
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इस लक्षण के अनुसार परिषत् शब्द से प्राम्नात संहिता - पठित शब्दों का निर्देश है, उसका यह शास्त्र है ।
यही अर्थ अगले सूत्र से भी द्योतित होता है
'आस्नातव्यमनाम्नातं प्रपाठेऽस्मिन् क्वचित् पदम् । छन्दसोऽपरिमेयत्वात् परिषत्तस्य लक्षणम्, परिषत्तस्य लक्षणम् ।
अर्थात् - पढ़ने योग्य शब्दों को नहीं पढ़ा इस प्रपाठ ( प्रातिशाख्य) में कहीं पदों को, छन्दों के अपरिमेय होने से परिषत् संहिता पठित शब्द ही उसका लक्षण है, अर्थात् संहिता के पाठ-सामर्थ्य से उसको वैसा ही समझे।
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श्रथर्व पार्षदोक्त प्रर्थ - प्रथर्व प्रातिशाख्य के अन्त में परिषत् शब्द का अर्थ इस प्रकार दर्शाया है
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अर्थ विशेष का कारण - प्रथर्व प्रातिशाख्य में किए गये इस अर्थ - विशेष का एक विशिष्ट कारण है । प्रथर्वपार्षद किसी शाखाविशेष का है, और अन्य श्रार्च याजुष प्रादि प्रातिशाख्य चरणों के हैं। एकएक चरण में कई-कई शाखाएं होने से चरण समूहावलम्बेन शाखाओं की सभा रूप होता है । अतः वहां लौकिक अर्थ से समानता बन जाती है । अथर्वशाखात्रों में आर्च और याजुत्र शाखाओंों के समान चरण विभाग नहीं है । इसलिए उसे परिषत् का भिन्न अर्थ बताना पड़ा।
१. समानं तुल्यकालं ब्रह्मचारित्वं येषां त इमेऽन्यशाखाध्यायिनोऽपि सब्रह्मचारिणः सवय सोऽभिवीयन्ते । द्र० – अष्टाध्यायी - शुक्लयजुः प्रातिशाख्योर्मतविमर्शः' श्री पं० विजयपाल प्राचार्य कृत पृष्ठ १०, पं० १३-१४; तथा द्र० - ३० हि० सं० लिटरेचर, मैक्समूलर, पृष्ठ ६८ ।