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प्रातिशास्य आदि के प्रवक्ता और व्याख्याता
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माधुनिक विद्वानों को भूल-प्रत्येक प्रातिशाख्य अपने-अपने चरणों की समस्त शाखाओं के संधि आदि नियमों का सामान्यरूप से उल्लेख करते हैं । इस तथ्य को न जान कर अनेक प्राधनिक विद्वान तत्तत् प्रातिशाख्यों को उन-उन विशिष्ट शाखाओं के नियमबोधक समझते हैं । इस अज्ञान के कारण अनेक लेखकों ने भूलें की हैं। हम ५ यहां निदर्शनार्थ एक ग्रन्थकार द्वारा की गई भूलों की ओर पाठकों का ध्यान आकृष्ट करते हैं
पूर्व नियम के अनुसार वर्तमान शौनक प्रोक्त ऋक्प्रातिशाख्य शाकल-चरण की सभी शाखाओं के नियमों का बोधक है, परन्तु ऋग्वेदकल्पद्रुम के लेखक केशव ने उक्त तात्पर्य को न जान कर ऋक्प्रातिशाख्य को ऋग्वेद की वर्तमान संहिता का ही नियम-बोधक मानकर ऋग्वेदकल्पद्रुम की भूमिका के अन्त में ऋक्संहिता, में अनेक प्रमादपाठ =अपपाठ दर्शाए हैं । और अन्त में लिखा है... 'एदमन्येऽपि प्रमादाः प्रतिशाख्यादिपुर्यालोचनेन ज्ञेयाः।'
इसी प्रकार माध्यन्दिन शाखा अध्येता एक. संशोधक ने निर्णय- १५ सागर प्रेस से सं० २००६ के आस पास प्रकाशित संहिता के.उन पाठों को जो वाजसनेय प्रातिशाख्य के अनुगुण नहीं थे, प्रातिशाख्य के अनुकल बना दिया। इन संशोधक महानुभाव ते स्वयं हमें बम्बई में सेठ प्रतापजी शूरजी के चतुर्वेद पारायण यज्ञ के अवसर पर कहा था। हमें उक्त महानुभाव का नाम स्मरण नहीं है, और ना ही उनके द्वारा २० परिवर्तित संस्करफ़ हमारे पास है। ...............!
इसलिए वैदिक संहिताओं के शोधकार्य में प्रवृत्त विद्वानों को प्रातिशाख्य ग्रन्थों से पाठ-संशोधन में सहायता लेते हुए इस बात का ध्यान रखना चाहिए. कि प्रातिशाख्य निर्दिष्ट नियम इसी शाखा के लिए (जिसका वे सम्पादन कर रहे हैं) हैं अथवा अन्य शाखा के लिए। २५ जो वैदिक संहिताओं के सम्पादन में इस बात का विशेष रूप से ध्यान नहीं रखेगा, वह उन संहिताओं के परम्परा प्राप्त पाठों को व्याकुलित
कर देगा।
पार्षद पारिषद शब्द का अर्थ–पर्षत् और परिषत् दोनों शब्द १. हमारा हस्तलेख, पृष्ठ १७१-१८२ ।।