________________
३६४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
विष्णपुराण के व्याख्याता श्रीधर ने अनुशाखा का अर्थ इस प्रकार लिखा है-अनुशाखा अवान्तरशाखः ।
इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि प्रतिशाखा पद का प्रयोग चरणरूप मूल संहिता के लिए, और अनूशाखा का प्रयोग उसकी अवान्तर ५ शाखामों के लिए होता है। इस दृष्टि से प्रतिशाखा का अर्थ होगा
शाखां प्रतिगता शाखा प्रतिज्ञाखा। अर्थात्-जो शाखा पुनः शाखा भाव को प्राप्त हुई, वह प्रतिशाखा कहाती है।
वेदों के जितने चरण अथवा अवान्तर शाखाओं की मूल संहिताएं १० हैं, वे भी अपने-अपने मूल वेद की शाखारूप हैं। एक ही मूल
ऋक्संहिता को पहले व्यास ने शकिल्य आदि पांच शिष्यों को पढ़ाया। पुनः उन्होंने स्वगुरु से प्राप्त संहिता को अपने-अपने शिष्यों को विभिन्न रूपों में पढ़ाया। ये शाकल्य आदि के द्वारा प्रोक्त संहिताए ।
मूल संहिता की शाखारूप हुई। शाकल्य आदि के शिष्यों ने पुनः १५ उनको विभिन्न प्रकार से अपने शिष्यों को पढाया । वे शाखायों की
अवान्तर शाखाएं हुई। इसी प्रकार अन्य वेदों की मूल संहिता भी शाखा-शमखान्तर रूप में प्रसृत हुई। इसी इतिहास को ध्यान में रखकर स्वामी दयानन्द सरस्वतो ने चरण और शाखानों के लिए ऋग्वे
दादिभाष्यभूमिका पृष्ठ २६४ (तृ० सं०) पर 'शाखा शाखान्तर २. व्याख्या सहित चार वेद' वाक्य में शाखा-शाखान्तर शब्दों का व्यवहार किया है । यह व्यवहार अति प्राचीन व्यवहार के अनुरूप है।
प्रतिज्ञासूत्र का व्याख्याता अनन्तदेव याज्ञिक कात्यायन प्राति. शाख्य को वाजसनेय चरण की १५ शाखाओं का प्रातिशाख्य मानता
हमा प्रतिशाखा शब्द के उक्त अथं को न समझ कर लिखता है२५ प्रतिशाखासु भवं प्रातिशाख्यमिति सम्भवाभिप्रायेण बहवचनान्तयोगेनापि निर्वाह इत्यास्तां तावत् ।२।१। काशी सं० पृष्ठ ४१५॥
यतः अवान्तर शाखाओं को मूल शाखा ही शाखान्तर भाव को प्राप्त होने से प्रतिशाखा शब्द से व्यवहृत होती है, इसलिए प्रातिशाख्य का संबध भी इसी प्रतिशाखा शब्द के साथ है। इस विवेचना से स्वष्ट है कि प्रातिशाख्यों का सम्बन्ध प्रतिशाखाओं अर्थात्, चरणों की समस्त अवान्तर शाखाओं के साथ है।