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________________ प्रातिशाख्य आदि के प्रवक्ता श्रौर व्याख्याता ३६३ विश्वबन्धु' प्रभृति का 'प्रति शाखा प्रातिशाख्यों की प्रवृत्ति हुई है' मत भ्रान्तिपूर्ण है ।" चरण और शाखानों में भेद -चरण शब्द से उन सभी शाखाओं का बोध होता है, जो किसी एक संहिता के विभिन्न प्राचार्यों के प्रवचन द्वारा पाठभेद होने के कारण प्रवान्तर विभागों में विभक्त हुई हैं । यथा वाजसनेय याज्ञवल्क्य प्रोक्त एक मूल वाजसनेयी संहिता के माध्यन्दिनि, कण्व, गालव आदि १५ प्राचार्यों द्वारा विभिन्न रूप से प्रोक्त सभी संहिताएं एक वाजसनेय सामान्य नाम से व्यवहृत होती हैं ।" यह वाजसनेय नाम उन सभी के चरण रूप प्रतिष्ठा = स्थिति का स्थान है । इस नाम से ज्ञात होता है कि माध्यन्दिनी का गालवी आदि शाखाम्रों को मूल स्थिति वाजसनेय याज्ञवल्क्य के प्रवचन पर प्रावृत है । प्रतिशाखा का मूल अर्थ - प्राचीन काल में चरण के अर्थ में प्रतिशाखा शब्द का व्यवहार होता था । और जिन्हें सम्प्रति शाखा के नाम से पुकारते हैं, उनके लिए श्रवान्तरशाखा शब्द प्रयुक्त होता १५ था | विष्णुपुराण अंश ३, प्र० ४ में ऋग्वेद की चरणरूप संहिताओं का वर्णन करके उसकी शाखाओंों के वर्णन के अनन्तर कहा है ' इत्येताः प्रतिशाखाभ्योऽप्यनुशाखा द्विजोत्तम' ||२५|| अर्थात् - शाकल्य शिष्य प्रोक्त पांच अनुशाखाओं को प्रतिशाखा से निसृत जानो । १० ३. तुलना करो - भोज वर्मा ( १२ वीं शती) का ताम्रपत्र .......... जमदग्निप्रवराय वाजसनेय चरणाय यजुर्वेदकण्वशाखाध्यायिने ...............'। इन्सक्रिप्शन्ज, ग्राफ बंगाल, भाग ३, पृष्ठ २१ । वारेन्द्र रिसर्च सोसाइटी राजशाही प्रकाशन, सन् १९२६ । २० १. प्रथर्व प्रातिशाख्य भूमिका, पृष्ठ १३ । . २. डा० ब्रजविहारी चौबे ने अपने 'वैदिक स्वरबोध' ग्रन्थ के प्राक्कथन में लिखा है - वेदों की जितनी शाखाएं होंगी, उतने ही प्रातिशाख्य ग्रन्थों की रचना हुई होगी, ऐसा हम अनुमान कर सकते हैं (पृष्ठ 'ज') । सम्भवतः प्रजविहारी चौबे की यह भ्रान्ति मैक्समूलर प्रभृति के लेखों को ही पढ़ कर हुई २५ होगी।
SR No.002283
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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