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________________ ३६२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास शाख्यों के अध्ययन से विदित होता है कि इनमें किसी एक शाखा के ही नियमों का निर्देश नहीं है, अपितु इनमें एक-एक चरण की सभी शाखाओं के नियमों का सामान्यरूप से उल्लेख मिलता है। प्राचार्य यास्क ने भी कहा है पदप्रकृतिः संहिता', पदप्रकृतीनि सर्वचरणानां पार्षदानि' ।१।१७॥ अर्थात्--पद जिनकी प्रकृति हैं वह संहिता होती है । सभी चरणों के पार्षद पदप्रकृतिवाले हैं। यहां यास्क ने भी पार्षदों का सम्बन्ध चरण के साथ दर्शाया है। न कि पृथक्-पृथक् शाखा के साथ । १० भट्ट कुमारिल भी प्रातिशाख्यों का सम्बन्ध चरणों के साथ मानता है । वह लिखता है 'धर्मशास्त्राणां गृह्मग्रन्थानां च प्रातिशाख्यलक्षणवत् प्रतिचरणं पाठव्यवस्थोपलभ्यते' । तन्त्र वार्तिक १।३ । १५ पृष्ठ २४४ (पूना सं०)। अर्थात्- धर्मशास्त्र और गृह्यग्रन्थों की भी प्रातिशाख्य के समान प्रति चरण व्यवस्था देखी जाती है। प्रतिज्ञापरिशिष्ट की टीका में अनन्तदेव लिखता है'प्रतिपञ्चदशशाखायां भिन्नानि प्रातिशाख्यानि नोपदिष्टानि, किन्तु श्रौतस्मार्तसूत्रवत् प्रातिशाख्यसूत्रमपि पञ्चदशशाखासाधारणं २० समाम्नातम्' । प्रतिज्ञा परि० (प्रातिशाख्यसंबद्ध) २२१॥ ___ अर्थात्-शुक्ल यजुर्वेद की १५ शाखाओं में प्रतिशाखा भिन्न-भिन्न प्रातिशाख्य नहीं उपदिष्ट किये गये, किन्तु श्रौत और स्मार्त सूत्रों के समान प्रातिशाख्य भी पन्द्रह शाखाओं का सामान्यरूप से है। ___ इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि प्रातिशाख्यों का संबन्ध तत्तत् २५ चरणों के साथ है, शाखाओं के साथ नहीं। अतः मैक्समूलर एवं पं० १. 'पदप्रकृतिः संहिता' लक्षण के विषय में जो भ्रान्त धारणा 'मन्त्र पहले पद रूप थे, संहिता पाठ पीछे निष्पन्न हुआ' की निवृत्ति के लिए इस अन्थ के तृतीय भाग में पदप्रकृतिः संहिता शीर्षक पाठवां परिशिष्ट देखें। २. 'हिस्ट्री आफ संस्कृत लिटरेचर' (मैक्स०) पृष्ठ ६२, इलाहाबाद सं०।
SR No.002283
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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