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२/४६ प्रातिशाख्य प्रादि के प्रवक्ता और व्याख्याता ३६१ अन्य लक्षण-ग्रन्थ - प्रातिशाख्यों के अतिरिक्त कुछ अन्य भी प्रातिशाख्यसदृश लक्षण-ग्रन्थ मिलते हैं । यथा
११- अथर्व चतुरध्यायी
१२- प्रतिज्ञासूत्र
१३- भाषिकसूत्र
१४ - ऋक्तन्त्र
१५-लघुऋक्तन्त्र
१६- सामतन्त्र
१७-अक्षरतन्त्र
१८- छन्दोग व्याकरण
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इनमें संख्या १-१० तक के ग्रन्थ साक्षात् प्रातिशाख्य हैं । इनमें भी २, ३, ४, ८ ये चार प्रातिशाख्य ही सम्प्रति उपलब्ध नहीं हैं अगले आठ ग्रन्थ साक्षात् प्रातिशाख्य नहीं हैं, और ना ही प्रातिशाख्य नाम से व्यवहृत होते हैं । इनमें संख्या १९, १४, १५ में प्रातिशाख्य सदृश ही वैदिक संहिताओं के स्वर सन्धि प्रादि विशिष्ट कार्यों का विधान है । संख्या १२, १३ के ग्रन्थ वाजसनेय प्रातिशाख्य के परिशिष्ट ग्रन्थ हैं । संख्या १६, १७ में सामगान संबन्धी स्तोम आदि का निर्देश मिलता है । संख्या १८ का ग्रन्थ विचारणीय है । इस नाम से इस ग्रन्थ का उल्लेख काशी के सरस्वती भवन संग्रह के सूचीपत्र में संख्या २०८५ पर मिलता है ।
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प्रातिशाख्य के पर्याय - प्रातिशाख्य के लिए प्राचीन ग्रन्थों में पार्षद शब्द का व्यवहार होता है ।" महाभाष्य ६ |३|१४ में पारिषद शब्द का भी प्रयोग मिलता है ।"
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प्रातिशाख्य शब्द का अर्थ - प्रातिशाख्य शब्द का अर्थ है
शाखां शाखां प्रति प्रतिशखिन्, प्रतिशाखेषु भवं प्रातिशाख्यम् ।
इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिस ग्रन्थ में वेद की एक-एक शाखा के नियमों का वर्णन हो, वह 'प्रातिशाख्य' कहाता है।' परन्तु प्राति
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१. पदप्रकृतीनि सर्वचरणानां पादानि । निरु १२।१७ ॥
२. सर्ववेदपारिषदं हीदं शास्त्रम् ।
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३. यह पाठ मैक्समूलर ने 'हिस्ट्री आफ संस्कृत "लिटरेचर' पृष्ठ ६३ ( इलाहाबाद संस्क०, सन् १९२६) पर तन्त्रवार्तिक के नाम से उद्धृत किया है, और पता ५।१।३ दिया है। पांचवें अध्याय पर तन्त्रवार्तिक नहीं है (तृतीय प्रध्याय
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पर समाप्त हो जाता है। और न ही इस पते पर कुमारिल कृत टीका में यह लेख मिलता है । यहां पते की संख्या के लेखन वा मुद्रण में अशुद्धि प्रतीत होती है ।
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