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अट्ठाईसवां अध्याय
प्रातिशाख्य आदि के प्रवक्ता और व्याख्याता
वैदिक-लौकिक उभयविध तथा केवल लौकिक संस्कृतभाषा के साथ साक्षात् सम्बद्ध शब्दानुशासनों और उनके परिशिष्टों ( - खिल५ पाठों) के प्रवक्ता और व्याख्याता प्राचार्यों का यथास्थान वर्णन करके अब हम उन प्रातिशाख्य प्रादि लक्षण-ग्रन्थों का वर्णन करते हैं, जिनका संबन्ध केवल वैदिक संहिताओं के साथ है। इन ग्रन्थों में व्याकरणशास्त्र के मुख्य उद्देश्यभूत प्रकृतिप्रत्ययरूप व्याकृति का निर्देश न होने से यद्यपि इन्हें वैदिक व्याकरण नहीं कह सकते, और ना ही किन्ही १० प्राचीन प्राचार्यों ने इन्हें व्याकरण नाम से स्मरण किया हैं, तथापि इनमें व्याकरण के एकदेश सन्धि प्रादि का निर्देश होने से इनकी लोक में सामान्य रूप से वैदिक व्याकरणरूप में प्रसिद्धि है । इसलिए व्याकरण - शास्त्र के इतिहास में इन ग्रन्थों का भी संक्षेप से हम वर्णन करते हैं ।
पुरा काल में प्रातिशाख्य सदृश अनेक वैदिक लक्षण-ग्रन्थ विद्य१५ मान थे । सम्प्रति उपलभ्यमान प्रातिशाख्यों में लगभग ५६ वैदिक लक्षण -शास्त्रों के प्रवक्ता प्राचार्यों के नाम उपलब्ध होते हैं । उनके नाम हम इस ग्रन्थ के द्वितीय अध्याय ( भाग १ ) में पृष्ठ ७४-७७ ( च० सं०) तक उद्धृत कर चुके हैं। इस नाम सूची से भी इस बात की पुष्टि होती है कि पुराकाल में प्रातिशाख्य सदृश अनेक लक्षण ग्रन्थ २० विद्यमान थे । परन्तु वे सब प्रायः काल-कवलित हो गए । उनके नाम भी विस्मृत के गर्त में दब गए। इस समय निम्न प्रातिशाख्य ग्रन्थ ही ज्ञात तथा उपलब्ध है
प्रातिशाख्य
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१ - प्रातिशाख्य
२ - प्राश्वलायन प्रातिशाख्य
३ - बाष्कल प्रातिशाख्य
४- शांखायन प्रातिशाख्य ५ - वाजसनेय जातिशाख्य
प्रातिशाख्य
६- तैत्तिरीय प्रातिशाख्य
७- मैत्रायणीय प्रातिशाख्य
८- चारायणीय प्रातिशाख्य - सामप्राति० (पुष्प वा फुल्लसूत्र ) १०- प्रथर्व प्रातिशाख्य