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फिट् सूत्रों का प्रवक्ता और व्याख्याता
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चित्वान् चित इति वचन श्रौर इसकी पूर्वव्याकरणे प्रथमया कार्यों निर्दिश्यते ' ( महाभाष्य ६ । १ । १५३) व्याख्या तथा महाभाष्य ८।४।७ की पूर्वाचार्याः कार्यभाजः षष्ठ्या न निरदिक्षन् व्याख्या से ध्वनित होता है ।
५. पूर्वनिर्दिष्ट हस्तलिखित वृत्ति में शान्तनव तन्त्र के फिष् संज्ञा विधायक दो सूत्र उद्धृत हैं । यथा
'शान्तनवाचार्य: फिष इति प्रातिपदिकसंज्ञां कृतवान् प्रर्थवदधातुरप्रत्ययः फिष् कृत्तद्धितसमासाश्च इति ।'
लगभग ऐसा ही पाठ जर्मनमुद्रित वृत्ति में भी है ।
६. आचार्य चन्द्रगोमी ने अपनी वृत्ति में शान्तनव-तन्त्र का एक १० प्रत्याहारसूत्र उद्धृत किया है । और उस प्रत्याहार का प्रयोग दिखाने के लिए दो फिट्सूत्रों का निर्देश किया है
'एष प्रत्याहारः पूर्वव्याकरणेष्वपि स्थित एव । श्रयं तु विशेषः - ऐोष इति यदासीत् तद् ऐग्रौच् इति कृतम् । तथाहि लघावन्ते द्वयोश्च बह्वषो गुरुः, तृणधान्यानां च द्वयषाम् ( फिट्सूत्र ) इति पठ्यते ।' पृष्ठ - १०, नागराक्षर सं० ।
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७. न्यासकार जिनेन्द्र बुद्धि ने काशिका १|२| ३० के विवरण में लिखा है—
'त्वसमसिमेत्यनुच्चानि इति सर्वादिध्वेव पठ्यन्ते ।' भाग १, पृष्ठ
१७० ।
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इसमें 'त्वसमसिमेत्यनुच्चानि सूत्र का पाठ सर्वादिगण में माना है । पाणिनि के सर्वादिगण में उक्त सूत्र पठित नहीं है । उक्त सूत्र शान्तनवीय फिट्सूत्रों में उपलब्ध होता है। इससे प्रतीत होता है कि यह सूत्र शान्तनवोय सर्वादिगण में भी पठित था, और फिट् स्वरप्रकरण में भी । पाणिनीय गणपाठ के सर्वादिगण में भी तीन सूत्र २५ ऐसे पठित हैं, जो उसकी अष्टाध्यायी में भी हैं ( अन्य गणों में भी ऐसे कई सूत्र हैं, जो उभयत्र पढ़े हैं ) । इससे स्पष्ट है कि प्राचार्य शान्तनव ने अपने शब्दानुशासन में सर्वादीनि शिट एतदर्थ सूत्र पढ़ा था, और तत्संबद्ध सर्वादिगण तथा अन्य गणों का प्रवचन गणपाठ में किया था ।