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३५४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ... घ-शिट् (सूत्र २६ ) सर्वनाम । __ - स्फिग् (सूत्र पाठान्तर में)=लुप्-प्रत्यय-प्रदर्शन ।
२. फिटसूत्रों में कतिपय प्रत्याहारों का प्रयोग मिलता है। प्रत्याहारों से गृहीत अर्थ के परिज्ञान के लिए प्रापिशलि तथा पाणिनीय ५ शास्त्रवत् प्रत्याहारसूत्रों का निर्देश आवश्यक है । उनके विना तत्तत्
प्रत्याहार से गृह्यमाण वर्गों का परिज्ञान कथमपि नहीं हो सकता है। यथा
क-अष् (सूत्र २७, ४२, ४६)=अच् पाणिनीय स्वर ।
ख-खय् (सूत्र ३१) खय् पाणिनीय =वर्ग के प्रथम द्वितीय । ___ ग-हय् (सूत्र ४६,६६) =हल पाणिनीय = व्यञ्जन ('हय् इति हलां संज्ञा' लघुशब्देन्दुशेखर)। ___३. फिटसूत्रों की एक वृत्ति का हस्तलेख अडियार (मद्रास) के हस्तलेख-संग्रह में विद्यमान है (द्र०--सूचीपत्र, व्याकरणविभाग,
ग्रन्थाङ्क ४००)। इसमें प्रथम सूत्र 'फिष' इतना ही है। और इस सूत्र १५ की वृत्ति के अन्त में लिखा है-स्वरविधौ अन्त उदात्त इति प्रक्रान्तम् ।
लगभग ऐसा ही पाठ जर्मन-मुद्रित फिटसूत्रवृत्ति में भी है। इन पाठों से विदित होता है कि यह सूत्रपाठ किसी बृहत्तन्त्र का अवयव है। उस बृहत्तन्त्र में इन सूत्रों से पूर्व अन्त उदात्तः का प्रकरण विद्यमान
था। अत: यहां भी अन्त उदात्तः पदों की अनुवृत्ति आती है । इसलिए २० इन फिट्सूत्रों का प्रथम सूत्र केवल फिष् इतना ही है। __४. हरदत्त ने भी पदमञ्जरी ६:२।१४ में आदि सूत्र 'फिष्' इतना ही माना है । वह लिखता है--
'फिष् इत्यादिमेन योगेनैव शान्तनवीयं चतुष्क सूत्रमुपलक्षयति । इस विषय में पदमञ्जरी ७।३।४ भी देखनी चाहिये।
इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि फिषोऽन्त उदात्तः ऐसा वर्तमान पाठ अशास्त्रीय है, अनुवृत्त्यंश जोड़कर बनाया गया है। तथा फिष् का फिषः षष्ठयन्त रूप भी पाणिनीय शास्त्रानुसार घड़ा गया है। पाणिनीय तन्त्र में कार्यो (जिसको कार्य का विधान किया जाए)
का षष्ठी विभक्ति से निर्देश होता है । परन्तु पूर्वपाणिनीय तन्त्रों में ३० कार्यो का प्रथमा से निर्देश होता था, यह पतञ्जलि के पूर्वसूत्रनिर्देशश्च