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शब्दों के धातुजत्व और धातु के स्वरूप पर विचार
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भले प्रकार स्थापन किया है, अर्थात् यास्क के मत में कोई भी शब्द रूढ=अधातुज नहीं है । यही मत महावैयाकरण शाकटायन का है।
उणादि-सूत्रों के पार्थक्य का कारण-जब शब्दों के एक बड़े अंश के विषय में यौगिकत्व और रूढत्व सम्बन्धी मतभेद उत्पन्न हो गया, तब तात्कालिक वैयाकरणों ने उन विवादास्पद शब्दों के साधुत्व-ज्ञापन ५ के लिये एक ऐसा मार्ग निकाला, जिससे दोनों मतों का समन्वय हो .. सके। इसके लिए उन्होंने उणादिवाठ का प्रवचन किया। अर्थात् उसे शब्दानुशासन के कृदन्त धातूज शब्दों के प्रकरण का खिल बनाकर शब्दानुशासन से पृथक कर दिया । रूढत्वेन अभिमत विवादास्पद शब्दों को धातुज माननेवालों की दष्टि से शब्दानुशासनस्थ कृदन्त शब्दों के १० समान उनके प्रकृति प्रत्यय अंश का प्रवचन कर दिया. और शब्दानुशासन के कृदन्त प्रकरण से बहिर्भूत करके उनका रूढत्व भी अभिव्यक्त कर दिया। यही कारण है कि साम्प्रतिक प्रायः सभी उणादिव्याख्याकार प्रौणादिक शब्दों को रूड मानते हए वर्णानुपूर्वी के परिज्ञानमात्र के लिये उनमें प्रकृति-प्रत्यय विभाग की कल्पना स्वीकार १५ करते हैं।'
उणादि सूत्रौ के सम्बन्ध में भ्रान्ति-आधुनिक वैयाकरण निकाय में यह धारणा दृढमूल हो गई कि वर्तमान पञ्चपादी उणादिसूत्र शाकटायन प्रोक्त हैं। वस्तुतः यह धारणा भ्रान्तिमूलक है। इस भ्रान्ति का कारण उणादयो बहुलम् (अष्टा० ३।३।१) सूत्र पर लिखे २० गये महाभाष्यकार के निम्न शब्द हैं
नाम च धातुजमाह निरुक्ते व्याकरणे च तोकम् ।......." वैयाकरणानां च शाकटायन आह धातुजं नामेति ।
वस्तुतः भाष्यकार को यहां इतना ही बताना अभिप्रेत है कि
१. उणादिप्रत्ययान्ताः संज्ञाशब्दाः। तेन तेषामत्र स्वरूपसंवेदनस्वरवर्णा- . नुपूर्वीमात्रफलम् अन्वाख्यानम् । श्वेतवनवासी, उणादिवृत्ति १।१।। इसी प्रकार अन्य वृत्तिकारों ने भी लिखा है।
२. येयं शाकटायनादिभिः पञ्चपादी विरचिता । श्वेतवनवासी उणादि-वृत्ति १॥१॥ एवं च कृवापेति उणादिसूत्राणि शाकटायनस्येति सूचितम् । नागेश प्रदीपोद्योत ३।३।१।।