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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
में नियत प्रतीत होते हैं, वे योगरूढ कहे जाते हैं और जिन शब्दों में धात्वर्थ का अनुगमन कथचित् भी प्रतीत नहीं होता, वे रूढ माने जाते हैं। संस्कृत भाषा के इतिहास से स्पष्ट है कि मनुष्यों के उत्तरोत्तर
मतिमान्द्य के कारण यौगिकत्व-धात्वर्थ प्रतीति में भी उत्तरोत्तर ५ ह्रास हुआ । इस कारण शब्दों में यौगिकत्व से योगरूढत्व और योगरूढत्व से रूढत्व की ओर अधिकाधिक गति हुई है।'
अव्ययों का रूढत्व-उक्त प्रवृत्ति के अनुसार जब धात्वर्थ अनुगमन का ह्रास हुया, तब सबसे प्रथम अव्ययों पर इसका प्रभाव पड़ा।
उनमें धात्वर्थ-अनुगमन की प्रतीति का नाश हो जोने पर उन्हें रूढ १० मान लिया, अर्थात् कृत्स्नवर्ण समुदाय के रूप में उन्हें अर्थ विशेष का वाचक अथवा द्योतक स्वीकार कर लिया।
नाम शब्दों का योगरूढत्व और रूढत्व-उक्त प्रवृत्ति के अनुसार जब नाम शब्दों में भी धात्वर्थ-अनुगमन और अर्थवैविध्य विस्मृत होने
लगा, तब नाम शब्दों की भी शुद्ध यौगिकता से योगरूढत्व और योग१५ रूढत्व से रूढत्व की ओर गति होने लगी। जैसे-जैसे धात्वर्थ-अनुगमन
विस्मृत होने लगा, वैसे-वैसे भाषा में रूढ शब्दों की संख्या वृद्धिंगत होतो गई।
रूढ माने गये शब्दों के विषय में विवाद-जब संस्कृत भाषा में शब्दों के रूढत्व की भावना दढ़मूल हो गई, तब रूढत्वेन स्वीकृत शब्दों के विषय में शास्त्रकारों में एक अत्यन्त रोचक और अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विवाद उत्पन्न हुआ । गाय के अतिरिक्त समस्त नरुक्त आचार्य और वैयाकरण शाकटायन लोक में रूढ माने जाने वाले शब्दों के धातुजत्व का, और नैरुक्त गार्ग्य तथा शाकटायन व्यतिरिक्त वैयाकरण अधातुजत्व का प्रतिपादन करने लगे। निरुक्त के प्रथमाध्याय के १२-१४ खण्डों में इस विवाद पर गम्भीर विवेचन किया है। यास्क ने रूढ शब्दों को अधातुज मानने वाले प्राचार्यों की युक्तियों का बड़ी उत्तमता से निकारण करके सम्पूर्ण नाम शब्दों के धातुजत्व सिद्धान्त का
... १. इस विषय की विशद मीमांसा हम 'संस्कृत भाषा का इतिहास' ग्रन्थ में करेंगे।