SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 371
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४६ संस्कृत-व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ५ उन्होंने स्वमत को पाणिनि-सम्मत भी दर्शाने का प्रयास किया। अष्टाध्यायी ७।११२ की व्याख्या में कात्यायन का वार्तिक है'प्रातिपदिकविज्ञानाच्च भगवतः पाणिनेराचार्यस्य सिद्धम्।' इस पर पतञ्जलि ने लिखा है 'प्रातिपदिकविज्ञानाच्च भगवतः पाणिनेराचार्यस्य सिद्धम् । उणादयोऽव्युत्पन्नानि प्रातिपदिकानि ।' । अर्थात्-पाणिनि के मत में प्रोणादिक शब्द अव्युत्पन्न अखण्ड प्रातिपदिक हैं। ___ महाभाष्य में ऐसे अनेक प्रसङ्ग हैं, जहां पर पतञ्जलि ने पाणि१० नीय सूत्रों की व्याख्या पाणिनीय मन्तव्य से भिन्न की है। कहीं-कहीं तो भिन्नता इतनी अधिक और महत्त्वपूर्ण है कि उसे देखते ही प्राचार्य चाणक्य का एक वचन अनायास स्मरण पा जाता है दृष्ट्वा विप्रतिपत्ति बहुधा शास्त्रेषु भाष्यकाराणाम् । स्वयमेव विष्णुगुप्तश्चकार सूत्रं च भाष्यं च ॥' १५ हो सकता है कि चाणक्य का संकेत पतञ्जलि की ओर ही हो। क्योंकि इतना सूत्रभाष्यकारों का मतभेद अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता। ऐसा ही मतभेद प्रोणादिक शब्दों में फिटसूत्रों वा अष्टाध्यायी के सूत्रों की प्रवृत्ति से सम्बद्ध है। अर्वाचीन पाणिनीय वैयाकरण-अर्वाचीन पाणिनीय वैयाकरण २० जिस प्रकार प्रांख मींचकर महाभाष्यकार प्रतिपादित सिद्धान्तों का अनुसरण करते हैं, उसी के अनुरूप उन्होंने पतञ्जलि के मतानुसार अव्युत्पन्न प्रातिपादिकों के स्वरपरिज्ञान के लिए फिटसूत्रों का भी आश्रय लिया है। वस्तुतः पाणिनीय मतानुसार औणादिक रूढ शब्दों के स्वरपरिज्ञान के लिए भी प्रकृति-प्रत्यय का ही प्राश्रयण उचित है। फिट्-सूत्रों का प्रवक्ता-पाणिनीय सम्प्रदाय में फिट-सूत्रों के प्रदक्ता के विषय में मतभेद है। इन्हें कुछ व्याख्याकार प्राचार्य शन्तन प्रोक्त मानते हैं तो कतिपय शान्तनवाचार्य प्रोक्त कहते हैं। कहीं कहीं इन्हें पाणिनि प्रोक्त भी स्वीकार किया है । यथा.१. अर्थशास्त्र के अन्त में।
SR No.002283
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy