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________________ २/४४ फिट् सूत्र का प्रवक्ता और व्याख्याता ३४५ 1 वृषादीनां च ( ० ६ २ | १६७) पाणिनीय सूत्र की प्रवृत्ति दर्शाता है । यह लेख जहां पात्रवाची कुण्ड विषयक लेख से विरुद्ध है, वहां एक ही शब्द में स्वरभेद में फिट्-सूत्र और पाणिनीय सूत्र दोनों को प्रवृत्ति दर्शाना अर्धजरतीय न्याय युक्त भी है । वस्तुतः फिट्सूत्र ऐसा ही संक्षिप्त स्वरविधायक शास्त्र है, जो शब्दों के रूढ अर्थात् ग्रव्युत्पन्न पक्ष के लिये श्रावश्यक है । ' पाणिनीय मत - पाणिनीय शास्त्र के 'अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम् ; कृत्तद्धितसमासाश्च ( १ । २/४५,४६ ) सूत्रों से इतना तो प्रतीत होता है कि वे रूढ शब्दों को अव्युत्पन्न भी मानते थे । परन्तु जहां तक स्वरप्रक्रिया का सम्बन्ध है, वे उन्हें व्युत्पन्न ही मानते थे । १० यदि प्राचार्य का ऐसा पक्ष न होता, तो वे शब्दों के स्वरपरिज्ञान के लिए महान् प्रयासपूर्वक लगभग ५०० सूत्रों का प्रवचन करते हुए अव्युत्पन्न पक्ष में प्रातिपदिक-स्वर के परिज्ञान के लिये भी फिट्सूत्रों जैसे कतिपय सूत्रों का प्रवचन प्रवश्य करते । यतः पाणिनि ने ऐसा प्रयास नहीं किया, अतः हमारा स्पष्ट मत है कि पाणिनि स्वरप्रक्रिया १५ की दृष्टि से शाकटायन और नैरुक्त सम्प्रदाय के अनुसार सम्पूर्ण नाम शब्दों को यौगिक मानता है इसीलिए उसके मतानुसार सभी शब्दों का स्वरपरिज्ञान भी प्रकृतिप्रत्यय - विभाग द्वारा उपपन्न हो जाता है । पाणिनीय व्याख्याकार -- पाणिनि का स्वमत क्या है, इस विषय में उसके शास्त्र से जो संकेत प्राप्त होता है, उसका निर्देश हम ऊपर कर चुके हैं। परन्तु पाणिनीय शास्त्र के व्याख्याता आचार्य कात्यायन और पतञ्जलि का मत भिन्न था। वे रूढ शब्दों को अव्युत्पन्न मानते थे । इसलिए उन्हें स्वरनिर्देश के लिए ऐसे शास्त्र की भावश्यकता पड़ी, जो शब्दों को प्रखण्ड मान कर ही स्वरनिर्देश करता हो । इसी कारण उन्होंने यत्र-तंत्र अगत्या फिट्सूत्रों का साक्षात् अथवा परोक्षरूप से प्राश्रयण किया । उन्हें इतने से ही सन्तोष नहीं हुआ, २५ १. प्रयुत्पत्ति रक्षस्य चेदमेव सूत्रे ज्ञापकमित्याहु: । महाभाष्य-प्रदीप ( १९१२/४५, नि० सं० ) । २. कात्यायन और पतञ्जलि ने फिट सूत्रों का निर्देश कहां-कहां किया है, यह हम अनुपद लिखेंगे । २०
SR No.002283
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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