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________________ ५ सत्ताईसवां अध्याय फिल्-सूत्र के प्रवक्ता और व्याख्याता पाणिनीय वैयाकरण सम्प्रदाय में प्राश्रीयमाण स्वरविषयक एक छोटा सा ग्रन्य है, जो फिटसूत्र के नाम से प्रसिद्ध है। फिट-सूत्रों के प्राश्रयण को प्रावश्यकता-हम पूर्व (भाग २, पृष्ठ ११-१६) सप्रमाण लिख चुके हैं कि अतिप्राचीन काल में संस्कृतभाषा के सभी शब्द यौगिक माने जाते थे। उस समय सभी शब्दों के स्वरों का परिज्ञान प्रकृति-प्रत्यय विभाग के अनुसार यथासम्भव प्राञ्जस्येन सम्पन्न हो जाता था। उत्तरकाल में शब्दों की एक बड़ी राशि जब रूढ मानी जाने लगी, तब भी जो प्राचार्य नामों को रूढ नहीं मानते थे, उनके मत में उन शब्दों के स्वरों की व्यवस्था प्रोणादिक प्रकृति प्रत्यय द्वारा उपपन्न हो जाती थी। परन्तु जिनके मत में औणादिक शब्द रूढ हैं अर्थात् अव्युत्पत्र हैं, उनके मत में प्रखण्ड शब्दों के स्वरज्ञान के लिए किसी ऐसे शास्त्र की आवश्यकता होती है, जो प्रकृति-प्रत्यय विभाग के विना ही स्वरपरिज्ञान कराता हो। यथा श्वेतवनवासी उणादिवृत्ति में लिखता है'मव्युत्पत्तिपक्षे तु लघावन्ते द्वयोश्च बह्वषो गुरुः' इति मध्योदात्तः । अस्य फिटसूत्रस्य अयमर्थ ....।१६७, पृष्ठ ३१ । नागेश भट्ट भी महाभाष्यप्रदोपोद्योत में लिखता है-'प्रकृतिप्रत्ययविभागशून्येष्वेव फिटसूत्रप्रवृत्तेश्च ।' ११२३४५, पृष्ठ ५२ निर्णयसागर सं० । __दोनों का भाव यही है कि फिटसूत्रों की प्रवृत्ति अव्युत्पत्ति पक्ष में, जहां प्रकृति-प्रत्यय का विभाग नहीं स्वीकार किया जाता है, वहीं . २५ होती है। नागेश का स्ववचोविरोध-नागेश प्रदीपोद्योत (१२२२२) में पानवाची कुण्ड शब्द को प्रदीप के अनुसार नविषयस्यानिसन्तस्य फिट्सूत्रानुसार प्रायुदात्त मानता है, परन्तु जारजवाची कुण्ड शब्द में
SR No.002283
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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