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३४० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास वबोध का लेखनकाल सं० १५१० है। अतः हेमहंसगणि का काल सामान्यतया सं० १४७५-१५५० वि० स्वीकार किया जा सकता है।
व्याख्याकार १. अनितिनाम (सं० १५१५ से पूर्व) हेमहंसगणि ने अपनी न्यायमञ्जूषा बृहद्वृत्ति के प्रारम्भ में लिखा है
..."तेषां चानित्यत्वमुपेक्ष्य व्याख्योदाहरणज्ञापकानामेव प्रज्ञापनाकनीयसी टीका कश्चित् प्रचीनानूचानश्चक्र ।' पृष्ठ १।।
पुनः प्राथमिक ५७ परिभाषात्रों की व्याख्या के अनन्तर लिखा है'इति प्राक्तनी न्यायवृत्ति क्वचित् क्वचिदुपजीव्य कृता ।' पृष्ठ ५०
इन वचनों से स्पष्ट है कि हेमहंसगणि से पूर्व किसी आचार्य ने हेमचन्द्राचार्य द्वारा साक्षात् निर्दिष्ट ५७ परिभाषाओं की व्याख्या की थी।
. इस व्याख्याकार के नाम तथा ग्रन्थ से हम सर्वथा अपरिचित हैं।
२. हेमहंसगणि (सं० १५१५ वि०) आचार्य हेमहंसगणि ने स्वसंकलित न्यायसंग्रह पर स्वयं कई टीकाएं लिखी हैं। काशी से प्रकाशित न्यायसंग्रह में हेमहंसगणि की न्यायार्थमञ्जूषा नाम्नी बृहद्वत्ति और उस पर स्वोपज्ञ न्यास छपा है। ____ सम्पादक ने जिन आदर्श पुस्तकों का उल्लेख प्रस्तावना के अन्त में किया है, उनमें लघुन्यास और बृहन्न्यास दो पृथक्-पृथक् न्यासों का निर्देश है । मुद्रित न्यास लघुन्यास है, अथवा बृहन्न्यास, यह मुद्रित पुस्तक से कथमपि सूचित नहीं होता। सम्पादक को न्यूनातिन्यून इसकी तो सूचना देनी ही चाहिये थी।
न्यायार्थमञ्जूषा नाम्नी बृहद्वृत्ति में बृहद् शब्द का निर्देश होने से सम्भावना होती है कि ग्रन्थकार ने इस पर कोई लघवत्ति भी लिखी थी। इसकी पुष्टि लघु और बृहद् दो प्रकार के न्यासग्रन्थों के निर्देश से भी होती है।
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