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परिभाषा-पाठ के प्रवक्ता और व्याख्याता
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प्रथम पाठ से यह तथ्य सर्वथा स्पष्ट है कि इस दुर्गसिंह से पूर्व कातन्त्र परिभाषा-पाठ पर कोई वत्ति लिखी जा चुकी थी। उसी की ओर संकेत करके दुर्गसिंह लिख रहा है कि कोई व्याख्याकार अन्त्याभावे........"इस परिभाषा का ज्ञापन 'दोऽद्धर्मः' (का० २।३।३१). सूत्र से मानता है। - इस अज्ञातनाम वृत्तिकार तथा उसकी व्याख्या के विषय में इससे अधिक कोई संकेत नहीं मिलता।
२. दुर्गसिंह (सं० ६७३-७०० वि०) कातन्त्र परिभाषा पर दुर्गसिंह की वृत्ति पं० काशीनाथ अभ्यङ्कर परिभाषासंग्रह में प्रकाशित कर रहे हैं । इस वृत्ति के जो हस्तलेख १० उन्हें मिले हैं, उनमें से B. संकेतित में ही इति दुर्गसिंहोक्ता परिभाषावृत्तिः समाप्ता पाठ उपलब्ध होता है। इसका एक हस्तलेख लन्दन के इण्डिया आफिस के पुस्तकालय में भी विद्यमान है (द्र०-सूचीपत्र. भाग १, खण्ड २ सं०७७२) । उसके अन्त में भी दुर्गसिंहोक्ता पाठ है । अतः यह वृत्ति दुर्गसिंह कृत है, यह स्पष्ट है।
कौनसा दुर्गसिंह ?-कातन्त्र सम्प्रदाय में दुर्गसिंह नाम के दो व्याख्याकार प्रसिद्ध हैं । एक वृत्तिकार, दूसरा वृत्तिटीकाकार। इन दोनों में से किस दुर्गसिंह ने यह परिभाषावृत्ति लिखी, यह विचारणीय है। ___ दुर्गसिंह की इस परिभाषावृत्ति में १२ वीं, परिभाषा की वृत्ति २० में भट्टि काव्य १८०४१ का श्लोक उद्घत है । अतः यह स्पष्ट है कि यह दुर्ग भट्टिकार से परवर्ती है। भट्रि काव्य की रचना वलभी के श्रीधरसेन राजा के काल में हुई थी। श्रीधरसेन नामक चार राजाओं का काल सं०५५७-७०७ वि० तक माना जाता है। भट्टि काव्य की रचना सम्भवतः प्रथम श्रीधरसेन के काल (सं० ५५७) में हुई, ऐसा. २५ आगे लिखेंगे । हमारे विचार में इस वृत्ति का लेखक वृत्तिकार प्रथम दुर्गसिंह है, जिपका काल सं० ६७३-७०० वि० के मध्य है। म० म० नहीं हैं । सम्भवतः यहां मूल पाठ 'चतुर्दशशत्यां' हो । दो शकारों के एकत्र लेख से यह पाठभ्रंश हुमा प्रतीत होता है।
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