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३३२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास शदधिकायां' परिभाषा नोक्ताः । अथ च वृत्तिटोकयोस्तत्र तत्र प्रयुक्ताः कार्येषु दृश्यन्ते । अतस्तासां युक्तितः संसिद्धिरुच्यते । परिभाषा-संग्रह पृष्ठ ४६। ___अर्थात्-सूत्रकार शर्ववर्मा और कात्यायन ने ४५० सूत्रों' में ५ परिभाषाएं नहीं पढ़ीं, परन्तु वृत्ति और टीका में जहां-तहां कार्यों में प्रयुक्त देखी जाती हैं । इसलिए उनकी युक्ति से संसिद्धि कहते हैं।
इस लेख से इतना स्पष्ट है कि इनका प्रवक्ता शर्ववर्मा अथवा कात्यायन नहीं है । वृत्ति और टीकाकारों ने पूर्व व्याकरण-ग्रन्थों के
अनुसार इनका जहां-तहां प्रयोग किया था। उसे देखकर किसी १० कातन्त्र अनुयायी ने पूर्वतः विद्यमान परिभाषायों को अपने शब्दानु
शासन के अनुकूल रूप देकर ग्रथित कर दिया। यथा हैम शब्दानशासन से संबद्ध परिभाषाओं को हेमहंसगणि ने ग्रथित किया है । ___ यह ग्रन्थनकार्य मुद्रित वृत्ति के कर्ता दुर्गासिंह से पूर्व ही सम्पन्न
हो गया था, ऐसा उसकी वृत्ति से द्योतित होता है । वह लिखता है१५ व-केचिद 'दोऽद्धर्म' (का० २।३।३१) इति वचनं ज्ञापकं मन्या न्ते इति । परिभाषासंग्रह, पृष्ठ ६१ ।
ख-कश्चिदत्र 'न वर्णाश्रये प्रत्ययलोपलक्षणम्' इति पठति । परिभाषासंग्रह, पृष्ठ ६४।
___इन दोनों में दुर्गासिंह अपने से पूर्व वृत्तिकारों को स्मरण करता २० है । प्रथमपाठ में पूर्ववृत्तिकार द्वारा निर्दिष्ट ज्ञापकसूत्र का उल्लेख
है। दूसरे में परिभाषा के पाठभेद का उल्लेख किया है। अतः स्पष्ट है कि इस वृत्तिकार दुर्ग से पूर्व न केवल कातन्त्र-सम्बद्ध परिभाषापाठ ही व्यवस्थित हो चुका था, अपितु उस पर कई व्याख्याए में लिखी जा चुकी थीं।
वृत्तिकार १. अज्ञातनामा (दुर्गसिंह से पूर्ववर्ती) दुर्गसिंह की वृत्ति के जो दो पाठ ऊपर उद्धृत किये हैं, उनमें १. यहां पाठ में कुछ भ्रंश हुआ है। कातन्त्र में केवल ४५० ही सूत्र