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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास समावेश भी यदृच्छा शब्दों के अन्तर्गत होता है। नागेश महाभाष्यप्रदीपोद्योत १॥३।१, पृष्ठ १११ (निर्णयसागर संस्क०) में टि घु आदि कृत्रिम संज्ञाओं को भी अनादि अर्थात् नित्य मानता है। हमारे विचार में यह मत शास्त्रसंमत नहीं है ।
न्यास ३।३३१ में भी लिखा है-तदेवं निरुक्तकारशाकटायनदर्शनेन त्रयी शब्दानां प्रवृत्तिः-जातिशब्दा गुणशब्दाः क्रियाशब्दा इति।
प्रक्रियाकौमुदि की टीका में विट्ठल लिखता है
एवं जातिगुणक्रियावाचित्वाच्छब्दानां त्रय्येव प्रवृत्तिर्न चतुष्टयो, यादच्छकानामभावात् । अथवा सर्वे क्रियाशब्दा एव स्युः, सर्वेषां धातु१० जत्वात् । तत एकैव प्रवृत्तिनं त्रयी न चतुष्टयो । भाग २, पृष्ठ ६०
मीमांसकों ने भी लोकवेदाधिकरण (मी० ११३। अधि० १०) में जाति शब्द गुणशब्द क्रियाशब्दों के सम्बन्ध में ही विचार किया है।
यदृच्छाशब्दों का रूढत्व-भाषा में यद्च्छाशब्दों की प्रवृत्ति अहंभाव और मूर्खता के कारण होती है । जगत् में जैसे-जैसे इन १५ कारणों की वृद्धि होती जाती हैं, उसी अनुपात से भाषा में यदृच्छा.
शब्दों की वृद्धि होती जाती है। यतः यदृच्छाशब्द भाषा अथवा व्याकरण के नियमों के अनुसार सोच विचारकर अर्थ-विशेष में प्रयुक्त नहीं किये जाते,' अतः वे कृत्स्न वर्णसमुदाय से ही अर्थविशेष के संकेत मान लिए जाते हैं । इसलिए यदृच्छाशब्द रूढ ही होते हैं। ___ यदृच्छाशब्दों का वैयर्थ्य यदृच्छाशब्दों में स्वाभाविक वाचकत्व शक्ति के अभाव के कारण वे भाषा में भाररूप ही होते हैं। उनसे कोई भी विशेष प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। महाकवि माघ ने सत्य ही लिखा है
यदृच्छाशब्दवत् पुंसः संज्ञायै जन्म केवलम् । शिशु० २।४७॥ २५
अत एव कात्यायन और पतञ्जलि जैसे प्रामाणिक प्राचार्यों ने यदच्छाशब्दों की कल्पना का प्रत्याख्यान करके न्याय्य शास्त्रान्वित शब्दों के व्यवहार की ही आज्ञा दी है।'
१. द्र०--यदृच्छया कश्चिद् लुतको नाम । 'ऋलुक' सूत्रभाष्य ॥ २. न्याय्यभावात् कल्पनं संज्ञादिषु । न्याय्यस्य ऋतकशब्दस्य भावात्